________________ [व्याल्याप्राप्तिसूत्र यथाख्यातचारित्र के छदमस्थ और केवली ये दो भेद हैं / छद्मस्थ यथाख्यातचारित्र के उपशान्तमोह और क्षीण मोह अथवा प्रतिपाती और अप्रतिपाती, ये दो भेद होते हैं। केवली-यथाख्यातचारित्र के दो भेद हैं-सयोगीकेवली का और अयोगीकेवली का / यथाख्यातचारित्र से युक्त साधु यथाख्यातसंयत कहलाता है।' द्वितीय वेदद्वार : पंचविध संयतों में सवेदी-अवेदी प्ररूपणा 12. सामाइयसंजये णं भंते ! कि सवेयए होज्जा, अवेयए होज्जा ? गोयमा [ सधेयए वा होज्जा, अवेयए वा होज्जा। अति सवेयए एवं जहा कसायकुसीले (70 6 0 24) तहेव निरक्सेसं / (12 प्र. भगवन् ! सामायिकसंयत सवेदी होता है या अवेदी ? (12 उ.] गौतम ! वह सवेदी भी होता है, अवेदी भी। यदि वह सवेदी होता है, आदि सभी कथन (उ. 6, सू. 14 में कथित ) कषायकुशील की वक्तव्यता के अनुसार कहना चाहिए / 13. एवं छेदोवट्ठावणियसंजए वि। [13] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में भी जानना चाहिए। 14. परिहार विसुद्धियसंजनो जहा पुलाश्रो (उ० 6 सु० 11) / [14] परिहारविशुद्धिकसंयत का कथन (उ. 6 सू. 11 में उक्त) पुलाक के समान है / 15. सुहमसंपरायसंजो प्रहक्खायसंजओ य जहा नियंठो (उ० 6 सु०१५)। [दारं 2] / [15] सक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6 सू. 15 में उक्त) निर्गन्थ के समान है। [द्वितीय द्वार] विवेचन--पंचविध संयतों में सवेदी-प्रवेदी-सामायिकसंयत सवेदी भी होते हैं और अवेदी भी / सामायिक चारित्र नौवें गुणस्थान पर्यन्त होता है / नौवें गुणस्थान में तो वेद का उपशम या क्षय हो जाता है, इसलिए वहाँ सामायिक चारित्री अवेदी होता है। या तो वह उपशान्तवेदी होता है या फिर क्षीणवेदी। नौवें गुणस्थान से पूर्व वह सवेदी होता है। उसमें तीनों ही वेद पाये जाते हैं / छेदोपस्थापनीयसंयत में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। परिहारविशुद्धिसंयत, पुलाक के समान पुरुषवेदो या पुरुष-नपुसकवेदी होता है। किन्तु सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत, दोनों ही क्रमशः उपशान्तवेदी एवं क्षीणवेदी होने से अवेदी होते हैं। तृतीय रागद्वार : पंचविध संयतों में सरागता-वीतरागता-निरूपण 16. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सरागे होज्जा, बीयरागे होज्जा? गोयमा ! सरागे होज्जा, नो वीयरागे होज्जा। [16 प्र. भगवन् ! सामायिकसयत सराग होता है या वीतराग ? [16 उ.] गौतम ! वह सराग होता है, वीतराग नहीं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 910 (ब) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3436 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 911 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org