________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7) [451 17. एवं सुहमसंपरायसंजए। . [17] इसी प्रकार यावत् सूक्ष्मसम्परायसयत-पर्यन्त कहना चाहिए। 18. अहक्खायसंजए जहा नियंठे (उ०६ सु० 16) / [दारं 3] / [18] यथाख्यात संयत का कथन (उ. 6 सू. 19 में कथित) निर्ग्रन्थ के समान जानना चाहिए। [तृतीय द्वार विवेचन--निष्कर्ष- सामायिकसयत आदि चार प्रकार के संयत सरागी होते हैं, अन्तिम यथाख्यातसंयत वीतरागी होता है। चतुर्थ कल्पद्वार : पंचविध संयतों में स्थितकल्पादि प्ररूपरणा 16. सामाइयसंजए णं भंते ! कि ठियकप्पे होज्जा, अठियकप्पे होला ? गोयमा ! ठियकप्ये वा होज्जा, अठियकप्पे वा होज्जा। [19 प्र.| भगवन् ! सामायिकसंयत स्थितकल्प में होता है या प्रस्थितकल्प में ? {16 उ.] गौतम ! वह स्थितकल्प में भी होता है और अस्थित कल्प में भी। 20. छेदोवट्ठावणियसंजए० पुच्छा / गोयमा ! ठियकप्पे होज्जा, नो अठियकप्पे होज्जा। 120 प्र.] भगवन् ! छेदोपस्थापनिकसंयत स्थितकल्प में होता है या अस्थितकल्प में ? [20 उ. गौतम ! वह स्थितकल्प में होता है, अस्थित कल्प में नहीं। 21. एवं परिहारविसुद्धियसंजए वि। [21] इसी प्रकार परिहारविशुद्धिकसंयत के विषय में भी समझना चाहिए। 22. सेसा जहा सामाइयसंजए। [22] शेष दो--सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत का कथन सामायिकसयत के समान जानना चाहिए / 23. सामाइयसंजए णं भंते ! कि जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होज्जा ? गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा जहा कसाय कुसोले (उ०६ सु० 26) तहेव निरवसेस / 123 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत जिनकल्प में होता है, स्थविरकल्प में होता है या कल्पातीत में होता है ? [23 उ.] गौतम ! वह जिनकल्प में होता है, इत्यादि समग्र कथन (उ. 6 सू. 26 में उक्त) कषायकुशील के समान जानना चाहिए / 24. छेदोवट्ठावणिनो परिहारविसुखिनो य जहा बउसो (उ० 6 सु० 24) / [24) छेदोषस्थापनिक और परिहार-विशुद्धिक-संयत में सम्बन्ध में (उ. 6, सू. 24 में उक्त) बकुश के समान वक्तव्यता जानना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org