________________ सप्तम शतक : उद्देशक-७] [167 [13-1 उ.] गौतम जोव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। [2] से केणढणं भते! एवं वुच्छति 'जीवा कामी वि, भोगी वि' ? गोयमा ! सोइंदिय-क्लिदियाई पडुच्च कामी, घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाई पडुच्च भोगी / से तेण?णं गोयमा ! जाव भोगी वि। [13-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं ? 13-2 उ.] गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षरिन्द्रिय की अपेक्षा से जीव कामी हैं और घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा से जीव भोगी हैं। इस कारण से, हे गौतम ! जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। 14. नेरइया णं भते ! किं कामी ? भोगी? एवं चेव / [14 प्र.] भगवन् ! नै रयिक जीव, कामी हैं अथवा भोगी हैं ? / [14 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव भी पूर्ववत् कामी भी हैं, भोगी भी हैं / 15. एवं जाव थणियकुमारा। [15] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। 16. [1] पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुढविकाइया नो कामी, भोगी। [16-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में भी यही प्रश्न है। [16.1 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, कामी नहीं हैं, किन्तु भोगी हैं। [2] से केण?णं जाव भोगी ? गोयमा ! फासिदियं पडुच्च, से तेण?णं जाव भोगी। [16-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि पृथ्वीकायिक जीव कामी नहीं, किन्तु भोगी हैं ? [16-2 उ.] गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीव भोगी हैं / इस कारण से, हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव यावत् भोगी हैं। [3] एवं जाव वणस्सतिकाइया / [16-3] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना चाहिए / 17. [1] बेइंदिया एवं चेव / नवरं जिभिदिय-फासिदियाइं पडुच्च / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org