________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [247 [8 उ.] गौतम ! एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक-कर्मआशीविष नहीं, परन्तु पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-कर्म-आशीविष है। 6. जदि पंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे कि सम्मच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियकामासौविसे ? गम्भवयकतियपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ? एवं जहा वेब्वियसरीरस्स मेदो जाव पज्जत्तासंखेज्जवासाउयगम्भवक्कतियपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, नो अपज्जत्तासंखेज्जवासाउय जाच कम्मासौविसे / [प्र.] भगवन् ! यदि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-कर्म-पाशीविष है तो क्या सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-पाशीविष है या गर्भज पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-पाशीविष है ? [6 उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें शरीरपद में वैक्रिय शरीर के सम्बन्ध में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार कहना चाहिए / यावत् पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयुष्य वाला गर्भज कर्मभूमिज पंचेन्द्रियतियंञ्जयोनिक-कर्म-पाशीविष होता है; परन्तु अपर्याप्त असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाला यावत् कर्म-प्राशीविष नहीं होता। 10. जदि मणस्सकामासोविसे कि सम्मच्छिममणुस्सकम्मासीविसे ? गम्भवतियमणुस्सकम्मालीविसे? गोयमा! णो सम्मुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे, गम्भवक्कंतियमणुस्सकम्मासीविसे, एवं जहा वेउब्वियसरीरं जाव पज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणूसकम्मासीबिसे, नो अपज्जता जाव कम्मासीविसे / [10 प्र.] भगवन् ! यदि मनुष्य-कर्म-प्राशीविष है, तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्य-कर्माशीविष है, या गर्भज मनुष्य-कर्म-प्राशीविष है ? [10 उ.] गौतम ! सम्मूच्छिम मनुष्य-कर्म-प्राशीविष नहीं होता, किन्तु गर्भज मनुष्यकर्म-आशीविष होता है / प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें शरीरपद में वैक्रियशरीर के सम्बन्ध में जिस प्रकार जीव-भेद कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए; यावत् पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य-कर्म-आशीविष होता है; परन्तु अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले यावत् कर्म-आशीविष नहीं होता। 11. जवि देवकम्मासोविसे कि भवणवासीदेवकम्भासीविसे जाव वेमाणियदेवकम्मासौविसे ? गोयमा! भवणवासिदेवकम्मासीविसे, वाणमंतरदेव०, जोतिसिय०, बेमाणियदेवकम्मासीविसे वि। [11 प्र.] भगवन् ! यदि देव-कर्माशीविष होता है, तो क्या भवनवासी देव-कर्माशीविष होता है; अथवा यावत् वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष होता है ? [11] गौतम ! भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये चारों प्रकार के देवकर्म-ग्राशी विष होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org