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________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 107. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए गोसलेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं वागरणं वागरिए समाणे हट्टतुट्ट० जाव हियए गोसालं मखलिपुत्तं वंदति नमसति, वं० 2 पसिणाई पुच्छइ, पसि० पु० 2 अट्ठाई परियादीयति, अ०प० 2 उठाए उठेति, उ० 2 गोसालं मंखलिपुत्तं वंदति नमंसति जाव पडिगए। __ [107] तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक से अपने प्रश्न का इस प्रकार का समाधान पा कर याजोविकोपासक अयंपुल अतीव हृष्टतुष्ट हा यावत् हृदय में अत्यन्त आनन्दित हुआ। फिर उसने मंलिपुत्र गोशालक को वन्दना-नमस्कार किया; कई प्रश्न पूछे, अर्थ (समाधान) ग्रहण किया / फिर वह उठा और पुन: मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना-नमस्कार करके यावत् अपने स्थान पर लौट गया। विवेचन--प्रस्तुत नौ सूत्रों (66 से 107 तक) में बताया है कि आजीविकोपासक अयंपुल की गोशालक के प्रति डगमगाती श्रद्धा को प्राजोविक स्थविरों ने उसके मन में उत्पन्न बात बता कर तथा पाठ चरम, पानक-अपान क प्रादि की मान्यता उसके दिमाग में ठसा कर गोशालक के प्रति श्रद्धा स्थिर कर दी। फलतः बुद्धिविमोहित अयंपुल को गोशालक ने जो कुछ कहा, वह सब उसने श्रद्धापूर्वक यथार्थ मान लिया / ' गोशालक द्वारा सत्य का अपलाप-गोशालक ने अयंपुल से कहा- तुमने जो मेरे हाथ में ग्राम की गुठली देखी थी, वह ग्राम की छाल थी, गुठली नहीं / गुठलो तो व्रती पुरुषों के लिए प्रकल्प. नीय है। किन्तु ग्राम की छाल त्वक् पानक-रूप होने से निर्वाण गमनकाल में यह अवश्य ग्राह्य होती है / हल्ला के प्राकार का कथन करते-करते मद्यमद में विह्वल होकर गोशालक ने जो उद्गार निकाले थे कि 'वीरो! वीणा बजाओ।' किन्तु यह उन्मत्तवत् प्रलाप सुन कर भो अयं पुल के मन में गोशाला के प्रति अविश्वास या प्रश्रद्धाभाव नहीं जागा। क्योंकि सिद्धि प्राप्त करने वालों के लिए चरम गान आदि दोषरूप नहीं हैं, इस प्रकार की बात उसके दिमाग में पहले से ही स्थविरों ने ठसा दी थी / इस कारण उसकी बुद्धि विमोहित हो गई थी। कठिनशब्दार्थ-अंबकूणग एडावणट्टयाए अाम्रफल की गुठली को फेंक देने के लिए। संगारं--संकेत / एगंतमंते-एकान्त में, एक अोर / हल्ला-तृण गोवालिका कीट-विशेष। राजस्थान में 'बामणी' नाम से प्रसिद्ध / एहि एतो इधर ना / प्रतिष्ठा-लिप्सावश गोशालक द्वारा शानदार मरणोत्तर क्रिया करने का शिष्यों को निर्देश 108. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अप्पणो मरणं प्राभोएइ, अप्प० प्रा० 2 आजीविए थेरे सद्दावेइ, आ० स० 2 एवं वदासि ---"तुब्भे गं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणित्ता सुरभिणा 1. वियापण्यत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 724-725 2. भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 11, पृ. 715-717 3. वहीं, भा. 11, पृ. 717 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2452 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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