________________ पन्द्रहवां शतक] [497 गंधोदएणं हाणेह, सु० व्हा०२ पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई ल हेह, गा० लू० 2 सरसेणं गोसोसेणं चंदणेणं गायाई अलिपह, सर० प्र०२ महरिहं हंसलक्खणं पडसाडगं नियंसेह, मह० नि०२ सन्यालंकारविभूसियं करेह, स० क० 2 पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहह, पुरि० दुरू० 2 सावत्थीए नगरीए सिंघाडग. जाव पहेसु महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्रोसेमाणा एवं वदह–'एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरित्ता इमोसे प्रोसप्पिणीए चउवीसाए तित्थगराणं चरिमतिस्थगरे सिद्ध जाव सम्वदुक्खप्पहीणे' / इडिसक्कारसमुदएणं मम सरीरगस्स णीहरणं करेह" / तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एतमढें विणएणं पडिसुणेति / [108] तदनन्तर मखलिपुत्र गोशालक ने अपना मरण (निकट भविष्य में) जान कर प्राजीविक स्थविरों को अपने पास बुलाया और इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त हुना जान कर तुम लोग मुझे सुगन्धित गन्धोदक से स्नान कराना, फिर रोंएदार कोमल गन्धकाषायिक वस्त्र (तौलिये) से मेरे शरीर को पोंछना, तत्पश्चात् सरस गोशीर्ष चन्दन से मेरे शरीर के अंगों पर विलेपन करना / फिर हंसवत् श्वेत महामूल्यवान् पटशाटक मुझे पहनाना / उसके बाद मुझे समस्त अलंकारों से विभूषित करना। यह सब हो जाने के पश्चात् मुझे हजार पुरुषों से उठाई जाने योग्य शिविका (पालकी) में बिठाना / शिविकारूढ करके श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् महापथों (राजमार्गों) में (होकर ले जाते समय) उच्चस्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना हे देवानुप्रियो ! यह मंखलिपुत्र गोशालक जिन, जिनप्रलापी है, यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरण कर इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थकर हो कर सिद्ध हुया है, यावत् समस्त दुःखों से रहित हुअा है।' इस प्रकार ऋद्धि (ठाठवाठ) और सत्कार के साथ मेरे शरीर का नीहरण करना (बाहर निकालना)। उन आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक की बात को विनयपूर्वक स्वीकार किया। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र (110) में गोशालक द्वारा अपनो मृत्यु निकट जान कर अपने अनुगामी स्थविरों को शरीर सुसज्जित कर धूमधाम से शवयात्रा निकाल कर मरणोत्तरक्रिया करने के दिये गए निर्देश का वर्णन है / ' कठिनशब्दार्थ---हंसलक्खणं : दो अर्थ-(१) हंस जैसा शुक्ल, या (2) हंसचिह्नवाला / नियंसेह---पहनाना / सीयं-शिविका / नीहरणं-बाहर निकालना (मरणोत्तरक्रिया)। सम्यक्त्वप्राप्त गोशालक द्वारा अप्रतिष्ठापूर्वक मरणोत्तर क्रिया करने का शिष्यों को निर्देश 109. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सत्तरत्तसि परिणममाणंसि पडिलद्धसम्मत्तस्स अयमेयारूवे प्रज्मथिए जाव समुप्पज्जित्था—'जो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे 1. विधाहपणत्तिमुत्तं; भा. 2 पृ. 725-726 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 385 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org