________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] 217 27. [1] जे अपज्जत्तरयणप्पभाविनेरइयचिदियपयोगपरिणया ते वेउन्विय-तथा-कम्मसरोरप्पयोगपरिणया / एवं पज्जत्तया वि। [27-1] जो पुद्गल अपर्याप्त-रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वैक्रिय, तेजस और कार्मण शरीर-प्रयोग-परिणत हैं / इसी प्रकार पर्याप्तक-रत्नप्रभापृथ्वीनर यिकपंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / [2] एवं जाव अहेसत्तमा। [27.2] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी-नैरयिक-प्रयोग-परिणत-पुद्गलों तक के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 28. [1] जे अपज्जत्तगसम्मुच्छिमजलचर जाव परिणया ते ओरालिय-तेया-कम्मासरीर जाव परिणया। एवं पज्जत्तगा वि / [28-1] जो पुद्गल अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम-जलचर-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर-प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्तक-सम्मूच्छिम-जलचर-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के सम्बन्ध में जानना चाहिए / [2] गमवक्कंतिया अपज्जत्तथा एवं चेव / [28-2] गर्भज-अपर्याप्तक-जलचर-(प्रयोग-परिणत पुद्गलों) के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। [3] पज्जत्तयाणं एवं चेव, नवरं सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं / {28-3] गर्भज-पर्याप्तक-जलचर-(प्रयोग-परिणत-पुद्गलों) के विषय में भी इसी तरह जानना चाहिए / विशेष यह है कि उनको पर्याप्तक बादर वायुकायिकवत् चार शरीर (-प्रयोगपरिणत) कहना चाहिए। [4] एवं जहा जलचरेसु चत्तारि आलावगा भणिया एवं चउप्पद-उरपरिसप्प-भुयपरिसप्पखहयरेसु वि चत्तारि पालावगा भाणियव्वा / [28-4] जिस तरह जलचरों के चार आलापक कहे गए हैं, उसी प्रकार चतुष्पद, उर:परिसर्प, भुजपरिसर्प एवं खेचरों (के प्रयोग-परिणतपुद्गलों) के भी चार-चार पालापक कहने चाहिए। 26. [1] जे सम्मुच्छिममणुस्साँचदियपयोगपरिणया ते पोरालिय-तेया-कम्मासरीर जाय परिणया। [29-1] जो पुद्गल सम्मूच्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तेजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं / [2] एवं गम्भवक्कतिया दि अपज्जत्तगा वि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org