________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [579 गोयमा ! नो कोटे वाति जाव नो केयती वाति घाणसहगया पोग्गला वांति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // सोलसमे सए छट्ठो उद्देसओ समत्तो // 16-6 / / [36 प्र.] भगवन् ! कोई व्यक्ति यदि कोष्ठपुटों (सुगन्धित द्रव्य के पुड़े) यावत् केतकीपुटों को खोले हुए एक स्थान से दूसरे स्थान लेकर जाता हो और अनुकूल हवा चलती हो तो क्या उसका गन्ध बहता (फैलता) है अथवा कोष्ठपुट यावत् केतकीपुट वायु में बहता है ? __ [36 उ.] गौतम ! कोष्ठपुट यावत् केतकोपुट नहीं बहते, किन्तु प्राण-सहगामी गन्धगुणोपेत पुद्गल बहते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ; यों कह कर (गौतम स्वामी) यावत् विचरते हैं। विवेचन-कोष्ठपुट आदि बहते हैं या गन्ध-पुद्गल ? --प्रस्तत सूत्र में भगवान् ने यह निर्णय दिया है, कोष्ठपुट आदि सुगन्धित द्रव्य को खोल कर अनुकूल हवा की दिशा में ले जाया जा रहा हो तो कोष्ठपुट आदि नहीं बहते, किन्तु कोष्ठपुट आदि की सुगन्ध के पुद्गल हवा में फैलते (बहते) हैं, और वे घ्राणग्राह्य होते हैं।' कठिन शब्दार्थ- कोटपुडाण-वाससमूह जिस (कोष्ठ) में पकाया जाता हो, वह कोष्ठ कहलाता है / कोष्ठ के पुट अर्थात् पुड़ों को कोष्ठपुट कहते हैं / // सोलहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त / 1. वियाहपण्णत्ति भा. 2, (मुलपाठ-टिप्पण) पृ. 766-767 2. भगवती. अ. वति, पत्र 713 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org