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________________ 5.76] [भ्याख्याप्राप्तिसूत्र [34] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, सर्वरत्नमय एक महाभवन देखता हुआ देखे, उसमें प्रविष्ट होता हुआ प्रवेश करे. तथा मैं इसमें स्वयं प्रविष्ट हो गया हूँ, ऐसा माने, इस प्रकार का स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो तो, वह उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देता है। 35. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं विमाणं सम्वरयणामयं पाससाणे पासति, दुरूहमाणे दूरूहति, दूरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव जाव अंतं करेति / [35] कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में, सर्वरत्नमय एक महान् विमान को देखता हुमा देखता है, उस पर चढ़ता हुआ चढ़ता है, तथा मैं इस पर चढ़ गया हूँ, ऐसा स्वयं अनुभव करता है, ऐसा स्वप्न देख कर तत्क्षण जाग्रत होता है, तो वह व्यक्ति उसो भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। विवेचन---मोक्षगामी को दिखाई देने वाले स्वप्न प्रस्तुत 14 सूत्रों (सू. 22 से 35) में मोक्षगामी को दिखाई देने वाले 14 प्रकार के स्वप्नों के संकेत दिये हैं। इनमें से लोहराशि आदि तथा सुराजलकुम्भ आदि का स्वप्न में देखने वाला व्यक्ति दूसरे भव में, अर्थात्-मनुष्य सम्बन्धी दूसरे भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है, शेष बारह मूत्रों में कथित पदार्थों को तथारूप से स्वप्न में देखने वाला व्यक्ति उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है।' कठिनशब्दार्थ -सुविणते-स्वप्न के अन्त में, अथवा स्वप्न के एक भाग में। हयपति-घोड़ों को पंक्ति को / पासमाणे पासति--पश्यत्ता (देखने) के गुण से युक्त हो कर देखता है, अर्थात् देखने की मुद्रा से युक्त या प्रयत्नशील हो कर देखता है / दुरूहमाणे दुल्हति ऊपर चढ़ता हुमा चढ़ता है। तक्खणामेव-तत्काल ही / दामिणि---गाय आदि को बांधने की रस्सी / पाईणपडीणायतं-पूर्वपश्चिम-लम्बा / / दुहओ समुद्दे पुढ़-दोनों ओर से समुद्र को छूती हुई। संवेल्लेइ-हाथों से समेटे / किण्हसुत्तर्ग-सुक्किलसुत्तगं-काला सूत, सफेद सूत / उग्गोवेमाणे-सुलझाता हुआ। अयरासिलोहराशि को / विविखरइ–बिखेर देता है। उम्मूलेइ-जड़ से उखाड़ फेंकता है / सुरावियडकुभंसुरा-मदिरा रूप विकट-जल के कुम्भ को। सोवीर--सौवीरक-कांजी। ओगाहति-अवगाहन करता-प्रवेश करता है।' गन्ध के पुद्गल बहते हैं, 36. अह भंते ! कोट्ठपुडाण वा जाव: केयतिपुडाण वा अणुवायंसि उम्भिज्जमाणाण वा जाव ठाणाओ वा ठाणं संकामिज्जमाणाणं किं को8 वाति जाव केयती वाति ? .- - - 1. भगवनी. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2570 2. (क) वही, भा. 5, पृ. 2566 (ख) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 712-713 3. 'जाव' पर सूचक पाठ-पत्तपुडाण वा चोयपुडाण वा तगरपुडाण वा' इत्यादि / 4. 'जाव' पद-सूत्रक पाठ-'निभिज्जमाणाण वा, उक्किरिज्जमाणाण वा विक्किरिज्जमाणाण वा' इत्यादि / ---भगवती. प्र. व. पत्र 713 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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