________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विविध प्रकार से प्राधाकर्मादि दोषसेवी साधु अनाराधक कैसे ?, आराधक कैसे ? 15. [1] 'माहाकम्मं गं प्रणवज्जे ति मणं पहारेत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स प्रणालोइ. यपडिक्कते कालं करेति नस्थि तस्स पाराहणा। [15-1] 'प्राधाकर्म अनवद्य-निर्दोष है, इस प्रकार जो साधु मन में समझता (धारणा बना लेता) है, वह यदि उस प्राधाकर्म-स्थान की आलोचना (तदनुसार प्रायश्चित्त) एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है, तो उसके आराधना नहीं होती। [2] से गं तस्स ठाणस्स पालोइयपडिक्कते कालं करेति अस्थि तस्स पाराहणा। ___ [15-2] वह (पूर्वोक्त प्रकार की धारणा वाला साधु) यदि उस (प्राधाकर्म-) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है / [3] एतेणं गमेणं नेयवं-कोयकडं ठविया रइयगं कतारभत्तं दुभिक्खभत्तं वद्दलियाभत्तं गिलाणभत्तं सिज्जातरपिडं रायपिंडं / - [15-3] प्राधाकर्म के (पूर्वोक्त) पालापकद्वय के अनुसार ही क्रीतकृत (साधु के लिए खरीद कर लाया हुआ), स्थापित (साधु के लिए स्थापित करके रखा हुआ) रचितक (साधु के लिये विखरे हुए चूरे को मोदक के रूप में बांधा हुआ (ौद्देशिक दोष का भेदरूप), कान्तारभक्त (अटवी में भिक्षुकों के निर्वाह के लिये तैयार किया हुमा माहार), दुर्भिक्षभक्त (दुष्काल के समय भिक्षुओं के लिये तैयार किया हुआ आहार), वर्दलिकाभक्त (आकाश में बादल छाये हों, घनघोर वर्षा हो रही हो, ऐसे समय में भिक्षुओं के लिए तैयार किया हुआ पाहार), ग्लान भक्त (ग्लान--रुग्ण के लिए बनाया हुमा आहार), शय्यातरपिण्ड (जिसकी आज्ञा से मकान में ठहरे हैं, उस व्यक्ति के यहाँ से आहार लेना), राजपिण्ड (राजा के लिए तैयार किया गया आहार), इन सब दोषों से युक्त आहारादि के विषय में (प्राधाकर्म सम्बन्धी आलापकद्वय के समान ही) प्रत्येक के दो-दो आलापक कहने चाहिए। 16. [1] 'प्राहाकम्मं णं प्रणवन्जे' ति बहुजणमझे भासित्ता सयमेव परिजित्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स जाव' अस्थि तस्स पाराहणा। [2] एयं पि तह चेव जाव' रायपिडं / [16-1] प्राधाकर्म अनवद्य (निर्दोष) है, इस प्रकार जो साधु बहुत-से मनुष्यों के बीच में कह (भाषण) कर, स्वयं ही उस प्राधाकर्म-आहारादि का सेवन (उपभोग) करता है, यदि वह उस स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके अाराधना नहीं होती, यावत् यदि वह उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है। [16-2] प्राधाकर्मसम्बन्धी इस प्रकार के पालापकद्वय के समान क्रोतकृत से लेकर राजपिण्डदोष तक पूर्वोक्त प्रकार से प्रत्येक के दो-दो पालापक समझ लेने चाहिए। 1. 'जाव' पद से यहाँ पूर्ववत् 'अणालोइय' का तथा 'आलोइय' का आलापक कहना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org