________________ पंचम शतक : उद्देशक-६] गया 14. नेरइया गंमते ! किं एगत्तं पभू विउवित्तए ? पुहत्तं पभू विकुवित्तए ? जहा जीवाभिगमे' प्रालावगो तहा नेयव्वो जाव दुरहियासं। [12 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव, एकत्व (एक रूप) की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं, अथवा बहुत्व (बहुत से रूपों) को विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? [14 उ.] गौतम ! इस विषय में जीवाभिगमसूत्र में जिस प्रकार आलापक कहा है, उसी प्रकार का पालापक यहाँ भी 'दुरहियास' शब्द तक कहना चाहिए / विवेचन-अन्यतीर्थिक-प्ररूपित मनुष्य समाकीर्ण मनुष्य लोक के बदले नारकसमाकीर्ण नरफलोक प्ररूपणा, एवं नरयिक-विकुर्वणा--प्रस्तुत दो सूत्रों में दो मुख्य तथ्यों का निरूपण किया (2) मनष्योक 400-500 योजन तक ठसाठस मनष्यों से भरा है, अन्यतीथिकों के विभंगज्ञान द्वारा प्ररूपित इस कथन को मिथ्या बताकर नरक लोक नैरयिक जीवों से ठसाठस भरा है, इस तथ्य की प्ररूपणा की गई है। (2) नैरयिक जीव एकरूप एवं अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं / नरयिकों को विकुर्वणा के सम्बन्ध में जीवाभिगम का प्रतिदेश-जीवाभिगम सूत्र के पालापक का सार इस प्रकार है-रत्नप्रभा आदि नरकों में नैरयिक जीव एकत्व (एकरूप) की भी विकुर्वणा करने में समर्थ हैं, बहुत्व (बहुत-से रूपों) की भी। एकत्व की विकुर्वणा करते हैं, तब वे एक बड़े मुद्गर या मुसु ढि, करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, नाराच, कुन्त (भाला), तोमर, शूल और लकड़ी यावत् भिडमाल के रूप की विकुर्वणा कर सकते हैं और, जब बहुत्व (बहुत से रूपों) की विकुर्वणा करते हैं, तब मुद्गर से लेकर भिडमाल तक बहुत-से शस्त्रों की विकुर्वणा कर सकते हैं / वे सब संख्येय होते हैं, असंख्येय नहीं / इसी प्रकार वे सम्बद्ध और सदश रूपों की विकुर्वणा करते हैं, असम्बद्ध एवं असदश रूपों की नहीं। इस प्रकार की विकुर्वणा करके वे एक दूसरे के शरीर को अभिघात पहुँचाते हुए वेदना की उदीरणा करते हैं / वह वेदना उज्ज्वल (तीव्र), विपुल (व्यापक), प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, परुष (कठोर), निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुर्ग, दुःखरूप और दुःसह होती है / 1. पालापक इस प्रकार है "गोयमा! एगत पि पह विश्वित्तए प्रहत्त' पि पह विवित्तए। एगत विउवमाणे एग महं मोग्गररूवं मुसु ढिएवं बा' इत्यादि / 'पृहत्त विउवमाणे मोगररूवाणि वा' इत्यादि / ताई संखेज्जाई नो असंखेज्जाई। एवं संबद्धाइं२ सरीराइंबिउन्वंति, विउवित्ता अन्नमन्नस्स कायं अभिहणमाणा 2 वेयणं उदीरति उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कड्यं फरसं निदरं चंडं तिब्बं दुक्खं दुग्ग दुरहियासं ति" -जीवाभिगम प्र. 3 उ.-२ भगवती अ. वृत्ति, पृ. 231. 2. बियाहपण्णात्तिसुत्त (मूलपाठटिप्पणयुक्त) भा-१ पृ-२०८-२०९ 3. (क) जीवाभिगम सूत्र, प्रतिपत्ति 3, द्वितीय उद्देशक नारकस्वरूपवर्णन, पृ. 117 (ख) भगवती-टीकानुवाद खं. 2, पृ-२०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org