________________ 472] [ व्याल्याप्रज्ञप्तिसूब (जो कि अशुभकर्म-बन्ध के हेतु हैं) से युक्त थे, इसलिए उन्हें भी पांचों क्रियाएँ लगती हैं / सिद्धों के अचेतन शरीर जीवहिंसा के निमित्त होने पर भी सिद्धों को कर्मबन्ध नहीं होता, न उन्हें कोई क्रिया लगती है, क्योंकि उन्होंने शरीर का तथा कर्मबन्ध के हेतु अविरति परिणाम का सर्वथा त्याग कर दिया था। रजोहरण, पात्र, वस्त्र प्रादि साधु के उपकरणों से जीवदया श्रादि करने से रजोहरणादि के भूतपूर्व जीवों को पुण्यबन्ध नहीं होता, क्योंकि रजोहरणादि के जीवों के मरते समय पुण्यबन्ध के हेतुरूप विवेक, शुभ अध्यवसाय आदि नहीं होते। इसके अतिरिक्त अपने भारीपन आदि के कारण जब बाण नीचे गिरता है, तब जिन जीवों के शरीर से वह बाण बना है, उन्हें पांचों क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि बाणादिरूप बने हुए जीवों के शरीर तो उस समय मुख्यतया जीवहिंसा में प्रवृत्त होते हैं, जबकि धनुष की डोरी, धनुःपृष्ठ आदि साक्षात वधक्रिया में प्रवृत्त न होकर केवल निमित्तमात्र बनते हैं, इसलिए उन्हें चार क्रियाएँ लगती हैं। वीतराग सर्वज्ञ प्रभु ने जैसा अपने ज्ञान में देखा है, वैसा ही कहा है, इसलिए उनके वचन प्रमाण मान कर उन पर श्रद्धा करनी चाहिए।' ___ कठिन शब्दों के अर्थ-परामुसइ = स्पर्श-ग्रहण करता है / उसु - बाण / प्राययकण्णाययं = कान तक खींचा हुआ। वेहासं, आकाश में। उबिहइ = फेकता है / जीवाधनुष की डोरी (ज्या), राहारू = स्नायु, पच्चोवयमाणे = नीचे गिरता हुआ / अन्यतोथिकप्ररूपित मनुष्यसमाकोरम् मनुष्यलोक के बदले नारकसमाकोर्ण नरकलोक की प्ररूपणा एवं नैरयिक-विकुर्वणा 13. अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्वंति जाव परूति-से जहानामए जुति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नामी अरगाउत्ता सिया एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयणसताई बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणुस्सेहिं / से कहमेतं मते ! एवं? गोतमा! जंणं ते अन्नउत्थिया जाव मणुस्सेहि, जे ते एवमाहंसु मिच्छा० / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवामेव चत्तारि पंच जोयणसताई बहुसमाइण्णे निरयलोए नेरइएहि / [13 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई युवक अपने हाथ से युवती का हाथ (कस कर) पकड़े हुए (खड़ा) हो, अथवा जैसे प्रारों से एकदम सटी (जकड़ी) हुई चक्र (पहिये) की नाभि हो, इसी प्रकार यावत् चार सौ-पांच सौ योजन तक यह मनुष्यलोक मनुष्यों से ठसाठस भरा हुआ है / भगवन् ! यह सिद्धान्त प्ररूपण कैसे है ? / [13 उ.] हे गौतम ! अन्यतीथियों का यह कथन मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि चार-सौ, पांच सौ योजन तक नरकलोक, नरयिक जीवों से ठसाठस भरा हुना है। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 230 2. वही, पत्रांक 230 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org