________________ पंचम शतक : उद्देशक-६] [475 17. 'प्राहाकम्मं णं प्रणवज्जे ति सयं अनमन्त्रस्स अणुप्पदावेत्ता भवति, से णं तस्स० एयं तह चेव जाव रायपिडं। [17] 'आधाकर्म अनवद्य है', इस प्रकार कह कर, जो साधु स्वयं परस्पर (भोजन करता है, तथा) दूसरे साधुओं को दिलाता है, किन्तु उस प्राधाकर्म दोष स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना काल करता है तो उसके अनाराधना तथा यावत अालोचनादि करके काल करता है तो उसके आराधना होती है / इसी प्रकार क्रीतकृत से लेकर राजपिण्ड तक पूर्ववत् यावत् अनाराधना एवं पाराधना जान लेनी चाहिए। 18. 'ग्राहाकम्म णं प्रणवज्जे' त्ति बहुजणमझे पनवइत्ता भवति, से णं तस्स जाव' अस्थि अाराहणा जाव रायपिडं। [18] 'प्राधाकर्म अनवद्य है', इस प्रकार जो साधु बहुत-से लोगों के बीच में प्ररूपण (प्रज्ञापन) करता है, उसके भी यावत् आराधना नहीं होती, तथा वह यावत् आलोचना-प्रतिक्रमण करके काल करता है, उसके आराधना होती है। ___ इसी प्रकार क्रीतकृत से लेकर यावत् राजपिण्ड तक पूर्वोक्त प्रकार से अनाराधना होती है, तथा यावत् अाराधना होती है। विवेचन-विविध प्रकार से प्राधाकर्मादि दोषसेवी साध अनाराधक कैसे, आराधक कैसे ?प्रस्तुत चार सूत्रों में प्राधाकर्मादि दोष से दूषित आहारादि को निष्पाप समझने वाले, सभा में निष्पाप कहकर सेवन करने वाले, स्वयं वैसा दोषयुक्त आहार करने तथा दूसरे को दिलाने वाले, बहुजन समाज में आधाकर्मादि के निर्दोष होने की प्ररूपणा करने वाले साधु के विराधक एवं पाराधक होने का रहस्य बताया गया है।' विराधना और पाराधना का रहस्य--प्राधाकर्म से लेकर राजपिण्ड तक में से किसी भी दोष का किसी भी रूप में मन-वचन-काया से सेवन करने वाला साधु यदि अन्तिम समय में उस दोषस्थान को आलोचना-प्रतिक्रमणादि किये बिना ही काल कर जाता है तो वह विराधक होता है, आराधक नहीं; किन्तु यदि पूर्वोक्त दोषों में से किसी दोष का किसी भी रूप में सेवन करने वाला साधु अन्तिम समय में उस दोष की आलोचना-प्रतिक्रमण कर लेता है, तो वह पाराधक होता है। निष्कर्ष यह है कि दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमणादि न करके काल करने वाला साधु विराधक और आलोचना-प्रतिक्रमणादि करके काल करने वाला साधु अाराधक होता है। प्राधाकर्मादि दोष निर्दोष होने की मन में धारणा बना लेना, तथा आधाकर्मादि के विषय में निर्दोष होने की प्ररूपणा करना विपरीतश्रद्धानादिरूप होने से दर्शन-विराधना है। इन्हें विपरीत रूप में जानना ज्ञान-विराधना है / तथा इन दोषों को निर्दोष कह कर स्वयं प्राधाकर्मादि पाहारादि सेवन करना, तथा दूसरों को वैसा दोषयुक्त आहार दिलाना, चारित्रविराधना है। 1. जाव पद से यहाँ 'अणालोइय' इत्यादि पद तथा 'आलोइय' इत्यादि पद कहने चाहिए। 2. वियाहपण्णतिसूत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 209-210 3. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 231 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org