________________ 476 / [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्राधाकर्म की व्याख्या साधु के निमित्त से जो सचित्त को अचित्त बनाया जाता है, अचित्त दाल, चावल आदि को पकाया जाता है, मकान आदि बनाए जाते हैं, या वस्त्रादि बुनाए जाते हैं, उन्हें प्राधाकर्म कहते हैं।' गणणसंरक्षणतत्पर प्राचार्य-उपाध्याय के सम्बन्ध में सिद्धत्व-प्ररूपरणा 16. पायरिय-उवज्झाए णं भंते ! सविसयंसि गणं प्रगिलाए संगिण्हमाणे अगिलाए उवागण्हमाणे कतिहि भवग्गहणेहि सिज्झति जाव अंतं करेति ? गोतमा ! प्रत्येगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिझति प्रत्थेगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिझति, तच्चं पुण भवागहणं नातिक्कमति / [16] भगवन् ! अपने विषय में (सूत्र और अर्थ को वाचना-प्रदान करने में) गण (शिष्यवर्ग) को अग्लान (अखेद) भाव से स्वीकार (संग्रह) करते (अर्थात्-सूत्रार्थ पढ़ाते) हुए तथा अग्लानभाव से उन्हें (शिष्यवर्ग को संयम पालन में) सहायता करते हुए प्राचार्य और उपाध्याय, कितने भव (जन्म) ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ? [16 उ.] गौतम ! कितने ही आचार्य-उपाध्याय उसी भव से सिद्ध होते हैं, कितने ही दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, किन्तु तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। विवेचन तथारूप प्राचार्य-उपाध्याय के सम्बन्ध में सिद्धत्वप्ररूपणा—जो आचार्य और उपाध्याय अपने कर्तव्य और दायित्व का भली-भांति वहन करते हैं, उनके सम्बन्ध में एक, दो या अधिक से अधिक तीन भव में सिद्धत्व प्राप्ति की प्ररूपणा की गई है। एक दो या तीन भव में मुक्त-कई आचार्य-उपाध्याय उसी भव में मुक्त हो जाते हैं, कई देवलोक में जा कर दूसरा मनुष्यभव धारण करके मुक्त होते हैं, और कितने ही देवलोक में जाकर तीसरा मनुष्यभव धारण करके मुक्त होते हैं, किन्तु तीन भव से अधिक भव नहीं करते।' मिथ्यादोषारोपणकर्ता के दुष्कर्मबन्ध-प्ररूपरणा 20. जेणं मते ! परं अलिएणं असंतएणं अभक्खाणेणं अन्मक्खाति तस्स णं कहप्पगारा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! जे णं परं अलिएणं असंतएणं अभक्खाणेणं अभक्खाति तस्स णं तहप्पगारा चैव कम्मा कन्जंति, जत्थेव शं अभिसमागच्छति तत्थेब णं पडिसंवेदेति, ततो से पच्छा वेदेति / सेवं ते! 2 त्ति० / // पंचमसए : छट्ठो उद्देसमो॥ 1. "आधाकर्म-आधया साधप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकम, वयते वा वस्त्रादिकम, तवाधाकर्म ।"-भगवती.हि. विवेचन, भा. 2, पृ. 860 2. भगवती मूत्र वृत्ति, पत्रांक 232 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org