________________ पंचम शतक : उद्देशक-६ 1 [477 20 प्र.] भगवन् ! जो दूसरे पर सद्भूत का अपलाप और असद्भूत का आरोप करके असत्य मिथ्यादोषारोपण (अभ्याख्यान) करता है, उसे किस प्रकार के कर्म बंधते हैं ? [20 उ.] गौतम ! जो दूसरे पर सद्भूत का अपलाप और असद्भूत का अारोपण करके मिथ्या दोष लगाता है, उसके उसी प्रकार के कर्म बंधते हैं। वह जिस योनि में जाता है, वहीं उन कर्मों को वेदता (भोगता) है और वेदन करने के पश्चात् उनकी निर्जरा करता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरने लगे। विवेचन-मिथ्यादोषारोपणकर्ता के दुष्कर्मबन्धन प्ररूपणा जो व्यक्ति दूसरे पर अविद्यमान या अशोभनीय कार्य करने का दोषारोपण करता है, वह उसी रूप में उसका फल पाता है / इस प्रकार दुष्कर्मबन्ध की प्ररूपणा की गई है। ब्रह्मचर्यपालक को अब्रह्मचारी कहना, यह सद्भूत का अपलाप है, अचोर को चोर कहना असद्भूत दोष का आरोपण है। ऐसा करके किसी पर मिथ्या दोषारोपण करने से इसी प्रकार का फल देने वाले कर्मों कर बन्ध होता है। ऐसा कर्मबन्ध करने वाला वैसा ही फल पाता है। कठिन शब्दों की व्याख्या-अलिएणं = सत्य बात का अपलाप करना / असम्भूएणं असद्भुत = अविद्यमान बात को प्रकट करना / अभक्खाणेणं = अभ्याख्यान = मिथ्यादोषारोपण / ' / / पंचम शतक : छठा उद्देशक समाप्त / / -- -- -- - -- - - - -- 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 210, (ख) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्रांक 232 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org