________________ 722] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [41 प्र. भगवन् ! कोई पुरुष, उन वैक्रियकृत शरीरों के अन्तरालों को अपने हाथ या पैर से स्पर्श करता हुआ, यावत् तीक्ष्ण शस्त्र से छेदन करता हुआ कुछ भी पीड़ा उत्पन्न कर सकता है ? [41 उ.] गौतम ! (इसका उत्तर) आठवें शतक के तृतीय उद्देशक (सू. 6-2 में कथित कथन) के अनुसार समझना; यावत्-उन पर शस्त्र नहीं लग (चल) सकता।। विवेचन—वैक्रियकृतशरीरों के छेदन भेदनादि द्वारा पोड़ा पहुंचाने की असमर्थता-प्रस्तुत सू, 41 में पूर्वोक्त शरीरों के अन्तराल पर हाथ-पैर आदि या शस्त्रादि द्वारा पीड़ा पहुँचाने के सामर्थ्य का अष्टम शतक के तृतीय उद्देशक के अतिदेशपूर्वक निषेध किया गया है / देवासुर-संग्राम में प्रहरण-विकुर्वणा निरूपण 42. अस्थि णं भंते ! देवासुराणं संगामो, देवासुराणं संगामो ? हंता, अस्थि / [42 प्र.] भगवन् क्या देवों और असुरों में (कभी) देवासुर-संग्नाम होता है ? [42 उ.] हाँ, गौतम ! होता है / 43. देवासुरेसुणं भंते ! संगामेसु वट्टमाणेसु कि णं तेसि देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति ? गोयमा ! जं गं ते देवा तणं वा क8 चा पत्तं वा सक्करं वा परामुसंति तं गं तेसि देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति। [43 प्र.] भगवन् ! देवों और असुरों में संग्राम छिड़ जाने (प्रवृत्त हो जाने पर कौन-सी वस्तु, उन देवों के श्रेष्ठ प्रहरण (शस्त्र) के रूप में परिणत होती है ? [43 उ.] गौतम ! वे देव, जिस तृण (तिनका), काष्ठ, पत्ता, या कंकर आदि को स्पर्श करते हैं, वही वस्तु उन देवों के शस्त्ररत्न के रूप में परिणत हो जाती है। 44. जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं ? णो इ8 सम8 / असुरकुमाराणं देवाणं निच्चं विउब्धिया पहरणरयणा पन्नता। [44 प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार देवों के लिए कोई भी वस्तु स्पर्शमात्र से शस्त्ररत्न के रूप में परिणत हो जाती है, क्या उसी प्रकार असुरकुमारदेवों (भवनपति-असुरों) के भी होती है ? [44 उ.] गौतम ! उनके लिए यह बात शक्य नहीं है ! क्योंकि असुरकुमारदेवों के तो सदा वैक्रियकृत शस्त्ररत्न होते हैं / विवेचन-देवासुर-संग्राम और उनमें दोनों ओर से प्रयुक्त शस्त्रों का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (42 से 44 तक) में देवासुरों के संग्राम से सम्बद्ध चर्चा है / देव और असुर कौन ?—प्रस्तुत में देव शब्द से ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का और असुर शब्द से भवनपति और वाणव्यन्तर देवों का ग्रहण किया गया है / ' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 753 (ख) भगवती. (विवेचन) भाग. 6 (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 2730 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org