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________________ नमोक्कार महामंत्र हमारे प्रसुप्त चित्त को जागत करता है। यह मंत्र शक्ति-जागरण का अग्रदुत है। इस मंत्र के जाप से इन्द्रियों को वल्मा हाथ में आ जाती है, जिससे सहज ही इन्द्रिय-निग्रह हो जाता है। मन्त्र एक ऐसी छनी हे जो विकारों को परतों को काटती है। जब विकार पूर्ण रूप से कट जाते हैं तब प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। महामन्त्र की जप-साधना से साधक अन्तर्मुखी बनता है, पर जप की साधना विधिपूर्वक होनी चाहिये / विधिपूर्वक किया गया कार्य हो सफल होता है। डॉक्टर रुग्ण व्यक्ति का प्रॉपरेशन विधिपूर्वक नहीं करता है तो रुग्ण व्यक्ति के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। बिना विधि के जड़ मशीनें भी नहीं चलतीं। सारा विज्ञान विधि पर ही अवलम्बित है। प्रविधिपूर्वक किया गया कार्य निष्फल होता है। यही स्थिति मंत्र-जप की भी है। नमोक्कार महामंत्र में पांच पद हैं / 35 अक्षर हैं। इनमें 11 अक्षर लघु हैं, 24 गुरु हैं, 15 दीर्घ हैं और 20 ह्रस्व हैं, 35 स्वर हैं और 34 व्यंजन हैं। यह एक अद्वितीय बीजसंयोजना है। 'नमो अरिहंताणं' में सात अक्षर हैं, 'नमो सिद्धाणं' में पांच अक्षर हैं, 'नमो पायरियाण' में सात अक्षर हैं, "नमो उवज्झायाण" में सात अक्षर हैं और ''नमो लोए सव्वसाहणं'' में नो अक्षर हैं.-इस प्रकार इस महामंत्र में कुल 35 अक्षर हैं / स्वर और व्यंजन का विश्लेषण करने पर "नमो अरिहंतागं" में 7 स्वर और 6 व्यंजन हैं, 'नमो सिद्धाणं" में 5 स्वर और 6 व्यंजन हैं, "नमो आयरियाणं" में 7 स्वर और 6 व्यंजन हैं, "नमो उवउझायाणं" में 7 स्वर और 7 ही व्यंजन हैं तथा "नमो लोए सबसाहणं" में 2 स्वर तथा 2 व्यंजन हैं -इस प्रकार नमोक्कार महामंत्र में 35 स्वर और 34 व्यंजन हैं ! यह महामंत्र जैन पाराधना और साधना का केन्द्र है, इसकी शक्ति अपरिमेय है। इस महामंत्र के वर्षों के संयोजन पर चिन्तन करें तो यह बड़ा अद्भुत और पूर्ण वैज्ञानिक है। इसके बीजाक्षरों को माधुनिक शब्दविज्ञान को कसौटी पर कसने पर यह पाते हैं कि इसमें विलक्षण ऊर्जा है और शक्ति का भण्डार छिपा हुआ है / प्रत्येक अक्षर का विशिष्ट अर्थ है, प्रयोजन है और ऊर्जा उत्पन्न करने की क्षमता है। जैनधर्म में प्ररिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच महान् प्रात्मा माने गये हैं, जिन्होंने प्राध्यात्मिक गुणों का विकास किया। आध्यात्मिक उत्कर्ष में न वेष बाधक है और न लिग ही। स्त्री हो या पुरुष हो, सभी अपना आध्यात्मिक उत्कर्ष कर सकते हैं। नमोक्कार महामंत्र में अरिहन्तों को नमस्कार किया गया है, किन्तु तीर्थंकरों को नहीं। तीर्थंकर भी अरिहन्त हैं तथापि सभी अरिहन्त तीर्थकर नहीं होते। अरिहन्तो के नमस्कार में तीर्थंकर स्वयं पा जाते हैं। पर तीर्थकर को नमस्कार करने में सभी अरिहन्त नहीं पाते / यहाँ पर तीर्थकरत्व मुख्य नहीं है, मुख्य है-अहंतभाव / जनधर्म की दृष्टि से तीर्थक रत्व प्रौदयिक प्रकृति है, वह एक कर्म के उदय का फल है किन्तु अरिहन्तदशा क्षायिक भाव है। वह कर्म का फल नहीं अपितु कमों की निर्जरा का फल है / तीर्थकरों को भी जो नमस्कार किया जाता है, उसमें भी अहतभाव ही मुख्य रहा हुप्रा है। इस प्रकार नमोक्कार महामंत्र में व्यक्ति विशेष को नहीं, किन्तु गुणों को नमस्कार किया गया है। व्यक्तिपूजा नहीं किन्तु गुणपूजा को महत्त्व दिया गया है / यह कितनी विराट् और भव्य भावना है / प्राचीन ग्रन्थों में नमोक्कार महामंत्र को पंचपरमेष्ठीमंत्र भी कहा है। 'परमे तिष्ठतीति' अर्थात् जो प्रात्माएं परमे---शुद्ध, पवित्र स्वरूप में, वीतराग भाव में ब्ठी-रहते हैं—वे परमेष्ठी हैं। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करने के कारण अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु हो पंच परमेष्ठी हैं। यही कारण है कि भोतिक दृष्टि से चरम उत्कर्ष को प्राप्त करने वाले चक्रवर्ती सम्राट् और देवेन्द्र भी इनके चरणों में झुकते हैं। त्याग के प्रतिनिधि-ये पंच परमेष्ठी हैं। पच परमेष्ठी में सर्वप्रथम अरिहन्त है / जिन्होंने पूर्ण रूप से सदा-सदा के लिए राग-द्वेष को नष्ट कर दिया है, बे अरिहन्त हैं, जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त शक्ति रूप वीर्य के धारक होते हैं, सम्पूर्ण विश्व के ज्ञाता/दष्टा होते हैं, जो सुख-दु:ख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, प्रभति [24] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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