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________________ विरोधी द्वन्द्वों में सदा सम रहते हैं। तीर्थकर और दूसरे प्ररिहन्तों में आत्मविकास की दृष्टि से कुछ भी अन्तर नहीं दूसरा पद सिद्ध का है। सिद्ध का अर्थ पूर्ण है / जो द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार के कर्मों से अलिप्त होकर निराकुल आनन्दमय शुद्ध स्वभाव में परिणत हो गये, वे सिद्ध हैं। यह पूर्ण मुक्त दशा है। यहाँ पर न कर्म हैं, न कर्म बन्धन के कारण ही हैं। कर्म और कर्मबन्ध के अभाव के कारण आत्मा वहाँ से पुन: लौटकर नहीं आता / वह लोक के अग्रभाग में ही अवस्थित रहता है। वहाँ केवल विशुद्ध प्रात्मा ही आत्मा है, परद्रव्य और परपरिणति का पूर्ण अभाव है। यह विदेहमुक्त अवस्था है। यह ग्रामविकास की अन्तिम कोटि है। दूसरे पद में उस परमविशुद्ध प्रात्मा को नमस्कार किया गया है। तृतीय पद में प्राचार्य को नमस्कार किया गया है। आचार्य धर्मसंघ का नायक है। वह संघ का संचालनकर्ता है, साधकों के जीवन का निर्माणकर्ता है / जो साधक संयमसाधना से भटक जाते हैं, उन्हें प्राचार्य सही मार्गदर्शन देता है। योग्य प्रायश्चित्त देकर उसकी संशद्धि करता है। वह दीपक की तरह स्वयं ज्योतिर्मान होता है और दूसरों को ज्योति प्रदान करता है। चतुर्थ पद में उपाध्याय को नमस्कार किया गया है / उपाध्याय ज्ञान का मधिष्ठाता होता है। वह स्वयं ज्ञानाराधना करता है और साथ ही सभी को आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करता है। पापाचार से विरत होने के लिए ज्ञान की साधना अनिवार्य है। उपाध्याय ज्ञान की उपासना से संघ में अभिनव चेतना का संचार करता है। पांचवें पद में साधु को नमस्कार किया गया है / जो मोक्षमार्ग की साधना करता है, वह साधु है। साधु सर्वविरति-साधना पथ का पथिक है। वह परस्वभाव का परित्याग कर आत्मस्वभाव में रमण करता है। वह अशूभोपयोग को छोड़कर शुभोपयोग और शुद्धोपयोग में रमण करता है। उसके जीवन के कण-कण में अहिंसा का आलोक जगमगाता रहता है; सत्य की सुगन्ध महकती रहती है। अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की उदास भावनाएँ अंगड़ाइयाँ लेती रहती हैं। वह मन, वचन और काय से महाव्रतों का पालन करता है। जैनधर्म में मूल तीन तत्त्व माने गए हैं--- देव, गुरु और धर्म / तीनों ही तत्त्व नमोक्कार महामन्त्र में देखे जा सकते हैं। अरिहन्त जीवनमुक्त परमात्मा हैं तो सिद्ध विदेह मुक्त परमात्मा हैं। ये दोनों प्रात्मविकास की दृष्टि से पूर्णत्व को प्राप्त किए हुए हैं। इसलिए इनको परिगणना देवत्व की कोटि में की जाती है। प्राचार्य, उपाध्याय और साधु आत्मविकास की अपूर्ण अवस्था में हैं, पर उनका लक्ष्य निरन्तर पूर्णता की प्रोर बढ़ने का है। इसलिए वे गुरुतत्त्व की कोटि में हैं। पांचों पदों में अहिंसा, सत्य, तप ग्रादि भावों का प्राधान्य है। इसलिए वे धर्म को कोटि में हैं / इस तरह तीनों ही तत्त्व इस महामन्त्र में परिलक्षित होते हैं। नमोक्कार महामन्त्र पर चिन्तन करते हुए प्राचीन प्राचार्यों ने एक अभिनव कल्पना की है और वह कल्पना है रंग की। रंग प्रकृतिनटी की रहस्यपूर्ण प्रतिध्वनियाँ हैं, जो बहुत ही सार्थक हैं। रंगों को अपनी एक भाषा होती है। उसे हर व्यक्ति समझ नहीं सकता, किन्तु वे अपना प्रभाव दिखाते ही हैं। पाश्चात्य देशों में रंगविज्ञान के सम्बन्ध में गहराई से अन्वेषणा की जा रही है। प्राज रंगचिकित्सा एक स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति के रूप में विकसित हो चुकी है। रंगविज्ञान का नमोक्कार मन्त्र के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है। यदि हम उसे जानें तो उससे अधिक लाभान्वित हो सकते हैं। आचार्यों ने अरिहन्तों का रंग श्वेत, सिद्धों का रंग लाल, प्राचार्य का रंग पीला, उपाध्याय का रंग नीला है तथा साधु का रंग काला बताया है। हमारा सारा मूर्त संसार पोद्गलिक [25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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