________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [545 कठिन शब्दों का विशेषार्थ सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी : दो अर्थ-(१) शिविका की प्रदक्षिणा करते हुए, (2) दक्षिण की ओर से शिविका पर चढ़ी। पुरत्थाभिमुहे पूर्व की ओर मुख करके / सष्णिसण्णे-बैठा / भद्दासणवरंसि-उत्तम भद्रासन पर। 'केसालंकारेणं' इत्यादि का भावार्थ-केश, वस्त्र, माला और आभूषणों को यथास्थान साजसज्जा से युक्त किया। पडिग्गहपात्र / वामे पामे -बाएं पार्श्व में। पिटुमो-पृष्ठभाग में-पीठ के पीछे। सिंगारागार-शृगार का घर, अथवा शृमारप्रधान प्राकृति। विलासकलिया-विलास-नेत्रजनितविकार से युक्त / कणग-पीला सोना। तवणिज्ज-लाल सोना। महरिह-महामूल्य / सन्निकासाओ-समान / पगासं-समान। आयवत्तं-छत्र / सलील--लीला सहित / धारेमाणी-धारण करती हुई / वीयमाणोप्रो- ढुलाती हुई। संगय-गय = संगत-व्यवस्थित गति (चाल) इत्यादि / विमलसलिलपुण्णं-- जल से पूर्ण / मत्तगय-महामुहाकितिसमाणं--उन्मत्त गज के मुख को स्वच्छ प्राकृति के समान / भिगारं-कलश या झारी / उत्तरपुरस्थिमेणं-उत्तर-पूर्व दिशा में / दाहिणपुरथिमेणं-दक्षिणपूर्व दिशा (आग्नेयकोण) में। चित्तं कणगदंडं-विचित्र स्वर्णमय दण्ड (हत्थे) वाले। तालयंट ताड़पत्र के पंखे को। 67. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, कोडुबियपुरिसे सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सरिसयं सरित्तयं सरिन्वयं सरिसलावष्ण-रूवजोवणगुणोधवेयं एगाभरणवसणगहियनिज्जोयं कोडुबियवरतरुणसहस्सं सद्दावेह / [67] इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा—'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही एक सरीखे, समान त्वचा वाले, समान वय वाले, समान लावण्य, रूप और यौवन-गुणों से युक्त, एक सरीखे आभूषण, वस्त्र और परिकर धारण किये हुए एक हजार श्रेष्ठ कौटुम्बिक तरुणों को बुलायो / ' 68. तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सरिसयं सरित्तयं जाव सद्दावेति / [68] तब वे कौटुम्बिक पुरुष स्वामी के आदेश को यावत् स्वीकार करके शीघ्र ही एक सरीखे, समान त्वचा वाले यावत् एक हजार श्रेष्ठ कौटुम्बिक तरुणों को बुला लाए / 69. तए णं ते कोडुबियपुरिस (? तरुणा) जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणो कोडुबियपुरिसेहि सद्दाविया समाणा हद्वतु४० व्हाया क्यबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता एगाभरण. वसणगहियनिज्जोया जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धावेत्ता एवं क्यासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हेहि करणिज्ज / " -. -.. 1. (क) भगवती. भा. 4 (पं. धेवरचन्दजी), पृ. 1740 - 1742 (ख) भग. अ. वृ., पत्र 478 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org