________________ पंचम शतक : उद्देशक-२] [421 [12-1 प्र.] भगवन् ! ईषत्पुरोवात प्रादि वायु (ही) हैं (न) ?' [12-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे (सब वायु हो) हैं / [2] कया गं भंते ! ईसि पुरेवाता पत्था वाता. ? गोयमा ! जया णं वाउकुमारा वाउकुमारीग्रो वा अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अट्टाए बाउकायं उदीरति तया णं ईसि पुरेवाया जाव वायति / [12-2 प्र.] भगवन् ! ईषत्पुरोवात, पथ्यवात आदि (और) कब (किस समय में) चलती [12-2 उ. गौतम ! जब वायुकुमार देव और वायु कुमार देवियाँ, अपने लिए, दूसरों के लिए या दोनों के लिए वायुकाय की उदीरणा करते हैं, तब ईषत्पुरोवात प्रादि वायु यावत् चलती (बहती) हैं। 13. वाउकाए णं भंते ! बाउकायं चेव प्राणमति वा पाणमति वा ? जहा खंदए तहा चत्तारि पालावगा नेयवा-प्रणेगसतसहस्स० / पु? उदाति वा / ससरीरी निक्खमति / [13-1 प्र.] भगवन् ! क्या वायुकाय वायुकाय को ही श्वासरूप में ग्रहण करता है और निःश्वासरूप में छोड़ता है ? [13 उ.] गौतम ! इस सम्बन्ध में स्कन्दक परिवाजक के उद्देशक में कहे अनुसार चार आलापक जानना चाहिए यावत् (1) अनेक लाख बार मर कर, (2) स्पृष्ट हो (स्पर्श पा) कर, (3) मरता है और (4) शरीर-सहित निकलता है / विवेचन-ईवत्पुरोवात श्रादि चतुर्विध वायु की विविध पहलुओं से प्ररूपणा-प्रस्तुत 13 सूत्रों में ईषत्पुरोवात आदि चारों प्रकार के वायु के सम्बन्ध में निम्नलिखित सात पहलुओं से प्ररूपणा की गई है (1) ईषत्पुरोवात आदि चारों प्रकार की वायु चलती हैं / (2) ये सब सुमेरु से पूर्वादि चारों दिशाओं और ईशानादि चारों विदिशाओं में चलती हैं। (3) ये पूर्व में बहती हैं, तब पश्चिम में भी बहती हैं, और पश्चिम में बहती हैं, तब पूर्व में भी। (4) द्वीप और समुद्र में भी ये सब वायु होती हैं। (5) किन्तु जब ये द्वीप में बहती हैं, तब समुद्र में नहीं बहती और समुद्र में बहती हैं, तब द्वीप में नहीं बहतीं, क्योंकि ये सब एक दूसरे से विपरीत पृथक्-पृथक् बहती हैं, लवणसमुद्रीय वेला का अतिक्रमण नहीं करतीं। (6) ईषत्पुरोवात प्रादि वायु हैं, और वे तीन समय में तीन कारणों से चलती हैं-(१) जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org