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________________ बौद्ध दर्शन में काल केवल व्यवहार के लिये कल्पित है। काल कोई स्वभावसिद्ध पदार्थ नहीं है, प्राप्ति मात्र है किन्तु अतीत, अनागत प्रौर वर्तमान आदि व्यवहार मुख्य काल के बिना नहीं हो सकते / जैसे कि बालक में शेर का उपचार मुख्य शेर के सद्भाव में ही होता है, वैसे ही सम्पूर्ण कालिक व्यवहार मुख्य कालद्रव्य के बिना नहीं हो सकते। पौषध : एक चिन्तन भगवतीसूत्र शतक 12 उद्देशक 1 में शंख श्रावक का वर्णन है / वह श्रावस्ती का रहने वाला था तथा जीव आदि तत्त्वों का गम्भीर ज्ञाता था / उत्पला उसकी धर्मपत्नी थी। उसने भगवान महावीर से अनेक जिज्ञासाएं की / समाधान पाकर वह परम संतुष्ट हुमा / अन्य प्रमुख श्रावकों के साथ वह श्रावस्ती की पोर लोट रहा था। उसने अन्य श्रमणोपासकों से कहा कि भोजन तैयार करें और हम भोजन करके फिर पाक्षिक पौषध आदि करेंगे। उसके पश्चात शंख श्रावक ने ब्रह्मचर्य पूर्वक चन्दनविलेपन आदि को छोड़कर पौषधशाला में पौषध स्वीकार किया / पोषध का अर्थ है अपने निकट रहना / पर-स्वरूप से हटकर स्व-स्वरूप में स्थित होना। साधक दिन भर उपासनागह में अवस्थित होकर धर्मसाधना करता है। यह साधना दिन-रात की होती है। उस समय सभी प्रकार के अन्न-जल-मुखवास-मेवा आदि चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है, कामभोग का त्याग तथा रजत-स्वर्ण, मणि-मुक्ता आदि बहुमूल्य प्राभूषणों का त्याग, माल्य-गंध धारण का त्याग, हिंसक उपकरणों एवं समस्त दोषपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। जैन परम्परा में इस व्रत की आराधना व्रती श्रमणोपासक प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को करता है। बौद्ध परम्परा में भी गृहस्थ उपासक के लिये उपोसथ व्रत आवश्यक माना गया है। सुत्तनिपात में लिखा है कि प्रत्येक पक्ष की चतुर्दशी, पूणिमा, अष्टमी और प्रतिहार्य पक्ष को इस अष्टांग उपोसथ का श्रद्धापूर्वक सम्यक रूप से पालन करना चाहिये 240 सुत्तनिपात में उपोसथ के नियम बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैं:-१. प्राणीवधन करे, 2. चोरी न करे, 3. असत्य न बोले, 4. मादक द्रव्य का सेवन न करे, 5, मथन से विरत रहे, 6. रात्रि में, विकाल में भोजन न करे, 7. माल्य एवं गंध का सेवन न करे, 8. उच्च शय्या का परित्याग कर जमीन पर शयन करे। ये आठ नियम उपोसथ-शील कहे जाते हैं / 41 तुलनात्मक रष्टि से जब हम इन नियमों का अध्ययन करते हैं तो दोनों ही परम्परामों में बहुत कुछ समानता है। जैन परम्परा में भोजन सहित जो पोषध किया जाता है, उसे देशावकाशिक व्रत कहा है। बौद्ध परम्परा में उपोसथ में विकाल भोजन का परित्याग है जबकि जैन परम्परा में सभी प्रकार के आहार न करने का विधान है। अन्य जो बातें हैं, वे प्रायः समान है। पौषधव्रत के पीछे एक विचारष्टि रही है, वह यह कि गृहस्थ साधक जिसका जीवन अहनिश प्रपञ्चों से घिरा हुमा है वह कुछ समय निकाल कर धर्म-आराधना करे / ईसा मसीह ने दस आदेशों में एक आदेश यह दिया है कि सात दिन में एक दिन विश्राम लेकर पवित्र अाचरण करना चाहिये,२४२ सम्भव है यह प्रादेश एक दिन उपोसथ या पौषध की तरह ही रहा हो पर आज उसमें विकृति आ गई है। तथागत बुद्ध ने उपोसथ का आदर्श अहत्त्व की उपलब्धि बताया है। उन्होंने अंगुत्तरनिकाय में स्पष्ट शब्दों में कहा है-क्षीण पाश्रव अर्हत का यह कथन उचित है कि जो मेरे समान बनना चाहते हैं वे पक्ष की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अष्टमी और प्रतिहार्य पक्ष को अष्टांगशील 239. अट्ठशालिनी 133 / 16 240. सुत्तनिपात 2628 241. सुत्तनिपात 26 // 25-27 242. बाइबल अोल्ड टेस्टामेंट, निर्गमन 20 [67 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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