________________ चीवीसवां शतक : उद्देशक 12 अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं तिनि गाउयाई / तिनि इंदियाई / ठिती जहन्नेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं एकूणपण्णं रातिदियाई / ततियगमए कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासोति वाससहस्साई छग्णउयरातिदियसतमभहियाई, एवतियं / मज्झिमा तिनि गमगा तहेव / पच्छिमा वि तिग्णि गमगा तहेव, नवरं ठिती जहन्नेणं एकूणपण्णं राइंदियाई, उक्कोसेण वि एकूणपण्णं राइंदियाई। संवेहो उवजुजिऊण भाणितब्बो। [1-6 गमगा। [25 प्र.] यदि वह पृथ्वीकायिक त्रीन्द्रिय जीवों से प्राकर उत्पन्न होता हो, तो ? इत्यादि प्रश्न / [25 उ. | यहाँ भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) नौ गमक कहना चाहिए। प्रथम के तीन गमकों में शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है। इनके तीन इन्द्रियाँ होती हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट 46 अहोरात्र की होती है। तृतीय गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट 166 अहोरात्र अधिक 88,000 वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / बीच के तीन (4-5-6) गमकों का कथन उसी प्रकार (पूर्वोक्त द्वीन्द्रिय के समान) जानना चाहिए। अन्तिम तीन (7-8-9) ममकों की वक्तव्यता भी पूर्ववत् जानना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट 46 रात्रि-दिवस की होती है / इनका संवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। [गमक 1 से 6 तक] / विवेचन--त्रीन्द्रिय-उत्पत्ति-सम्बन्धी नौ गमकों में विशेषता का स्पष्टीकरण-(१) श्रीन्द्रिय के तृतीय गमक में उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं। उनमें से त्रीन्द्रिय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 166 अहोरात्र और पृथ्वीकाय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 88 हजार वर्ष होती है। दोनों को मिलाने से कुल 196 रात्रि-दिवस अधिक 88 हजार वर्ष होते हैं / (2) चौथे, पांचवें और छठे गमक की तथा सातवें, पाठवें, और नौवें गमक की वक्तव्यता द्वीन्द्रिय के समान है। परन्तु सातवें, आठवें और नौवें गमक का संवेध-भवादेश से प्रत्येक के 8 भव तथा कालादेश से सातवें और नौवें गमक में उत्कृष्ट 196 रात्रि-दिन अधिक 88 हजार वर्ष होते हैं। आठवें गमक में चार अन्तर्मुहर्त अधिक 196 रात्रि-दिवस होते हैं। शेष विषय मूलपाठ से ही स्पष्ट हैं।' पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होनेवाले चतुरिन्द्रिय जीवों के उपपात-परिमारणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 26. जति चरिदिएहितो उबव० ? एवं चेव चरिदियाण वि नव गमगा भाणियब्वा, नवरं एएसु चेव ठाणेसु नाणता भाणितम्वा सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई / ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छम्मासा। एवं अणुबंधो वि। चत्तारि इंदिया। सेसं तहेव जाव 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 829 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org