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________________ पढमो उद्देसओ : 'चरम' प्रथम उद्देशक : चरम (-परम के मध्य की गति आदि) भावितात्मा अनगार को चरम-परम मध्य में गति, उत्पत्ति-प्ररूपणा 2. रायगिहे जाव एवं क्यासी [2] राजगृह नगर में यावत् श्रमण भगवान महावीर स्वामी से गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा 3. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं देवावासं वौतिक्कते, परमं देवावासं असंपत्ते, एत्थ गं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते ! कहि गती, कहिं उववाते पन्नत्ते ? ___ गोयमा ! जे से तत्थ परिपस्सओ तल्लेसा देवावासा तहि तस्स गती, तहि तस्स उववाते पन्नत्ते / से य तत्थगए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडिपडइ, से य तत्थ गए नो विराहेज्जा तामेव लेस्सं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ। _[3 प्र.] भगवन् ! (कोई) भावितात्मा अनगार, (जिसने) चरम (पूर्ववर्ती सौधर्मादि) देवावास (देवलोक) का उल्लंघन कर लिया हो, किन्तु परम (परभागवर्ती सनत्कुमारादि) देवाबास (देवलोक) को प्राप्त न हुआ हो, यदि वह इस मध्य में ही काल कर जाए तो भंते ! उसकी कौन-सी गति होती है, कहाँ उपपात होता है ? __ [3 उ.] गौतम ! जो वहाँ (चरम देवावास और परम देवावास के) परिपार्श्व में उस लेश्या वाले देवावास होते हैं, वहीं उसकी गति होती है और वहीं उसका उपपात होता है। वह अनगार यदि वहाँ जा कर अपनी पूर्वलेश्या को विराधता (छोड़ता) है, तो कर्मलेश्या (भावलेश्या) से ही गिरता है और यदि वह वहाँ जा कर उस लेश्या को नहीं विराधता (छोड़ता) है, तो वह उसी लेश्या का आश्रय करके विचरता (रहता) है / 4. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिक्कते, परमं असुरकुमारा ? एवं चेव / [4 प्र.] भगवन् ! (कोई) भावितात्मा अनगार, जो चरम असुरकुमारावास का उल्लंघन . कर गया और परम असुर कुमारावास को प्राप्त नहीं हुआ, यदि इसके बीच में ही वह काल कर जाए तो उसको कौन-सी गति होती है, उसका कहाँ उपपात होता है ? [4 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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