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________________ 434 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ओर से) जानता-देखता है, केवली सर्वकाल में, सर्वभावों (पदार्थों) को जानता-देखता है / केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) के अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन होता है। केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन निरावरण (सभी प्रकार के प्रावरणों से रहित) होता है / हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा गया है कि केवली मनुष्य प्रारगत और पारगत शब्दों को, यावत् सभी प्रकार के दूरवर्ती और निकटवर्ती शब्दों को जानता-देखता है / विवेचन-छद्मस्थ और केवली की शब्द-श्रवण-सम्बन्धी प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों में छदमस्थ और केवली मनष्य के द्वारा शब्दश्रवण के सम्बन्ध में निम्नोक्त तीन तथ्यों का निरूपण किया गया है- (1) छद्मस्थ मनुष्य बजाये जाते हुए शंख आदि वाद्यों के शब्दों को सुनता है / (2) किन्तु वह (छद्मस्थ) उन बजाये हुए वाद्य-शब्दों को कानों से स्पर्श होने पर सुनता है, तथा इन्द्रिय विषय के निकटवर्ती शब्दों को सुन सकता है। (3) केवलज्ञानी आरगत पारगत, निकट-दूर के समस्त अनन्त शब्दों को जानता-देखता है तथा वह सभी दिशाओं से, सब ओर से, सब काल में अपने निरावरण अनन्त-परिपूर्ण-केवलज्ञान केवलदर्शन से सर्वभावों (पदार्थों) को जानता-देखता है। मूल सूत्र में छद्मस्थ के लिए 'सुणेइ' क्रियापद का प्रयोग किया गया है जब कि केवली के लिए 'जाणइ पासइ' पद का प्रयोग किया है / इस भेद का कारण यह है कि छद्मस्थ जीव कान से शब्द सुनता है किन्तु केवली शब्द को कान से नहीं सुनते, केवलज्ञान-दर्शन से ही जानते-देखते हैं। 'प्राउडिज्जमाणाई पद की व्याख्या-संस्कृत में इस शब्द के दो रूपान्तर होते हैं-(१) आजोड़माना एवं (आजोड्यमानानि) (2) 'पाकुटयमानानि / प्रथमरूपान्तर की व्याख्या इस प्रकार है-मुखादि से प्रासम्बद्ध होते हुए वाविशेष; अर्थात्-मुख के साथ शंख का संयोग होने से, हाथ के साथ ढोल का संयोग होने से, लकड़ी के टुकड़े या डंडे के साथ झालर का संयोग होने से, इसी तरह अन्यान्य पदार्थों के साथ अनेक प्रकार के वाद्यों का संयोग होने से; अथवा बजाने के साधनरूप अनेक प्रकार के पदार्थों के पीटने- कूटने-चोट लगाने अथवा टकराने से बजने वाले अनेक प्रकार के बाजों से / कठिन शब्दों की व्याख्या-पारगयाइं= इन्द्रियों के निकट भाग में स्थित, या इन्द्रियगोचर / पारगयाई= इन्द्रियविषयों से पर, दूर या अगोचर रहे हुए। सव्वदूरमूलमतिय = (1) सर्वथा दूर और मूल = निकट में रहे हुए शब्द को, तथा अनन्तिक अर्थात्-न तो बहुत दूर और न बहुत निकट अर्थात्-मध्यवर्ती शब्दों को, (2) अथवा सर्वदूरमूल यानी अनादि और अन्तरहित शब्दों को। णिन्वुडे नाणे = कर्मों से अत्यन्त निवृत्त होने के कारण निरावरण ज्ञान / ' छदमस्थ और केवली के हास्य और औत्सुक्य सम्बन्धी प्ररूपरणा 5. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से हसेज्ज वा ? उस्सुनाएज्ज वा? हंता, हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा। 1. वियाहपण्पत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 194-195 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 216 (ख) भगवतीसूत्र (टीकानूवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 171 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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