________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9] [215 [25 उ.] गौतम ! (प्रज्ञापना सूत्र के छठे) व्युत्क्रान्तिपद में जिस प्रकार असुरकुमारों की . उद्वर्तना (कही गई) है, उसी प्रकार यहाँ भावदेवों की भी उद्वर्त्तना कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 21 से 25 तक) में पूर्वोक्त पंचविध देवों की उद्वर्तना (आयुष्य पूर्ण होने) के तत्काल बाद उनकी गति-उत्पत्ति का निरूपण किया गया है। भव्यद्रव्यदेवों के लिए नरकादितित्रयनिषेध-भव्यद्रव्यदेव भाविदेवभव का स्वभाव होने से नारक प्रादि तीन भवों में जाने और उत्पन्न होने का निषेध किया गया है।' नरदेवों की उद्वर्तनानन्तर उत्पत्ति-काम भोगों में प्रासक्त नरदेव (चक्रवर्ती) उनका त्याग न कर सकने के कारण नरयिकों में उत्पन्न होते हैं, इसलिए शेष तीन भवों में उनकी उत्पत्ति का निषेध किया गया है / यद्यपि कई चक्रवर्ती देवों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु वे देवों में या सिद्धों में तभी उत्पन्न होते हैं, जब नरदेवरूप को त्याग कर धर्मदेवत्व प्राप्त कर लेते हैं, अर्थात् जब चक्रवर्ती चक्रवतित्व छोड़कर चारित्र अंगीकार करके धर्मदेव (साधु) बन जाते हैं।' कठिन शब्दार्थ--उध्वद्वित्ता-उद्वर्तना करके--मरकर, शरीर से जीव निकल कर / अणंतरंबिना किसी अन्तर (व्यवधान) के, तत्काल, तुरन्त / ' स्व-स्वरूप में पंचविध देवों की संस्थितिप्ररूपरणा 26. भवियदवदेवे णं भते ! भवियदव्वदेवे' ति कालओ केवचिर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्त, उपकोसेणं तिणि पलिओवमाई / एवं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा वि जाव भावदेवस्स / नवरं धम्मदेवस्स जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुथ्वकोडी। [26 प्र.] भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव, भव्यद्रव्यदेवरूप से कितने काल तक रहता है ? [26 उ.] गौतम ! (भव्यद्रव्यदेव) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम तक (भव्य द्रव्यदेवरूप से) रहता है। इसी प्रकार जिसकी जो (भव-) स्थिति कही है, उसी प्रकार उसकी संस्थिति भी यावत् भावदेव तक कहनी चाहिए। विशेष यह है कि धर्मदेव की (संस्थिति) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि वर्ष तक है / विवेचन-प्रश्न का आशय-भव्यद्रव्यदेव, भव्यद्रव्यदेव-पर्याय को नहीं छोड़ता हुआ, कितने काल तक रहता है ? यानी उसका संस्थिति (संचिट्ठणा) काल कितना है ? जिसको जो भवस्थिति पहले कही गई है, वही उनकी संस्थिति (संचिटणा) अर्थात् -उस पर्याय का अनुबन्ध है।' 1. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 586 2. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 586 3. पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. 184, 29 4. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 586 5. वही, पत्र 586 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org