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________________ कर्म के उदय की दृष्टि से तेजस्काय और वायुकाय भी स्थावर ही हैं। इस दृष्टि से स्थावर के 5 भेद प्रतिपादित है। बस के द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-ये चार प्रकार हैं। संसार के जितने भी जीव हैं वे बस और स्थावर में समाविष्ट हो जाते हैं। गति की दष्टि से संसारी जीवों को चार भागों में विभक्त किया गया है--नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव / नारक गति के जीवों के परिणाम और लेश्या अशुभ और अशुभतर होती है। जब पापों का पुंज अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाता है तब जीव नरक में जाकर उत्पन्न होता है। नरक में भयंकर शीत, ताप, क्षुधा, तृषा प्रति वेदनाएँ होती हैं। नरकभूमियों में वर्षा, गन्ध, रस और स्पर्श आदि अशुभ होते हैं / उनके शरीर अशुचिकर और बीभत्स होते हैं। उनका शरीर वैक्रिय होता है तथापि उसमें अशुचिता की ही प्रधानता होती है। नरक के जी व मर कर पुन: नरक में पैदा नहीं होते / मनुष्य और तिर्यञ्च ही मर कर नरक में उत्पन्न होते हैं।। नारक, मनुष्य और देव को छोड़कर इस बिराट विश्व में जितने भी जीव हैं, वे सभी तिर्यच है / तिर्यच एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं / तिर्यञ्चों में पाँच स्थावर (एकेन्द्रिय), द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय सभी होते हैं। पंचेन्द्रिय में जलचर-स्थलचर-खेचर-उरचर और भुजचर जीवों का समावेश है / तिर्यञ्च जीवों का विस्तार बहुत है / वे अनन्त हैं। मूल आगमों में एक-एक के विविध प्रकार प्रतिपादित हैं / मनुष्यगति नामकर्म के उदय से जीव को मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। प्रात्मविकास की परिपूर्णता मानव ही कर सकता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने मानवगति की महिमा गाई है। मानवों को आर्य और अनार्य इन दो भागों में विभक्त किया गया है। जो हिंसा आदि दुष्कृत्यों से दूर रहता है वह प्रार्य है और इसके विपरीत व्यक्ति अनार्य है। पार्यों के भी ऋद्धिप्राप्त आर्य और अन ऋद्धिप्राप्त आर्य-ये दो प्रकार हैं। ऋद्धिप्राप्त आर्यों में तीर्थकर, 'चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, विद्याधर और चारण लन्धिधारी मुनि श्रादि हैं। पार्यों के भी क्षेत्रमार्य, जाति आर्य, कुल प्रार्य, कर्मप्राय, शिल्पग्रार्य, भाषाआर्य, ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चारित्रप्रायं, ये नौ प्रकार किये गये हैं / इन भेदों का मूल आधार गुण और कर्म हैं। अन्यान्य आधारों पर भी मनुष्यों के भेदों का निरूपण किया गया है। भौतिक सुख और समृद्धि की अपेक्षा मानवगति से देवगति श्रेष्ठ है / देवगति में पुण्य का प्रकर्ष होता है / उस में लेश्याएं प्रशस्त होती हैं। बैंक्रिय शरीर होता है, जिसके कारण वे चाहे जसा रूप बना लेते हैं। देवों के भी चार प्रकार हैं (1) भवन पति, (2) वाणव्यन्तर, (3) ज्योतिष्क और (4) वैमानिक / भवनों में रहने वाले देव भवनपति कहलाते हैं / असुर कुमार, नागकुमार आदि भवनपति देवों के दस प्रकार हैं। इन भवनपति देवों का आवास नीचे लोक में है। विविध प्रकार के प्रदेशों में एवं शून्य प्रान्तों में रहने वालों को वाणव्यन्तर देव कहते हैं। भूत, पिशाच श्रादि व्यत्तर देव हैं। ये देव मध्यलोक में रहते हैं / ज्योतिष्क देवो के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा, ये पांच भेद हैं। ये अढाई द्वीप में चर हैं और अढाई द्वीप के बाहर अचर यानी स्थिर हैं। ज्योतिडक देव मध्यलोक में ही हैं। विमानों में रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं / वैमानिक देव ऊँचे लोक में रहते हैं। उनके कल्पोपपन्न और कल्पातीत, ये दो प्रकार हैं ! कल्पोपपन्नों में स्वामी-सेवक भाव रहता है पर कल्पातीतों में इस प्रकार का व्यवहार नहीं होता। कल्पोपपन्नों के बारह प्रकार हैं और कल्पातीत के वेयकवासी और अनुत्तरविमानवासी ये दो प्रकार हैं। वेयक देवों के नौ प्रकार हैं। अनुत्तरविमानबासी विजय, वैजयन्त आदि पांच प्रकार के हैं। बारह देवलोकों में प्रथम पाठ देवलोकों का आधिपत्य एक-एक इन्द्र के [25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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