________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [ 325 समान कहे गये हैं, इसका अर्थ है-शकेन्द्र एक समय में नीचे एक योजन जाता है, तथैव वज्र एक समय में ऊपर एक योजन जाता है।" वज्रभयमुक्त चिन्तित चमरेन्द्र द्वारा भगवत्सेवा में जाकर कृतज्ञताप्रदर्शन, क्षमायाचन और नाट्यप्रदर्शन 42. तए णं से चमरे असुरिंद असुरराया वज्जभविष्पमुक्के सक्केणं देविदेणं देवरणा मह्या अवमाणेणं अवमाणिते समाणे चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि ओहतमणसंकप्पे चितासोकसागरसंपविढे करतलपल्हत्थमुहे अट्टभागोवाते भूमिगतदिट्ठीए झियाति / [42] इसके पश्चात् वज्र-(प्रहार) के भय से विमुक्त बना हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान से अपमानित हुना, चिन्ता और शोक के समुद्र में प्रविष्ट असुरेन्द्र असुरराज चमर, मानसिक संकल्प नष्ट हो जाने से मुख को हथेली पर रखे, दृष्टि को भूमि में गड़ाए हुए आर्तध्यान करता हुआ, चमर चंचा नामक राजधानी में सुधर्मासभा में, चमर नामक सिहासन पर (चिन्तितमुद्रा में बैठा-बैठा) विचार करने लगा। 43. तते गं तं चमरं असुरिदं असुररायं सामाणियपरिसोबयन्नया देवा प्रोहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासंति, 2 करतल जाव एवं क्यासि-कि णं देवाणुपिया ! अोहयमणसंकप्पा जाव झियायंति ? तए णं से चमरे असुरिद असुर राया ते सामाणियपरिसोबवन्नए द वे एवं वयासी.---'एवं खलु देवाणुप्पिया! मए समणं भगवं महावीरं मीसाए कटु सक्के दोविद देवराया सयमेव प्रच्चासादिए / तए णं तेणं परिकुवितेणं समाणेणं ममं वहाए वज्जे निसि? / तं भदं णं भवतु देवाणुपिया ! समणस भगवत्रो महावीरस्स जस्सम्हि पभावेण अधिकट्ठ प्रवाहिए अपरिताविए इहमागते, इह समोसढे, इह संपत्ते, इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ताणं विहरामि / तं गच्छामो णं देवाणुप्पिा ! समणं भगवं महावीर वंदामो णमंसामो जाव पज्जुबासामो' ति कटु च उसट्ठीए सामाणियसाहस्सोहिं जाव सविड्ढीए जाव जेणेव असोगवरपादवे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छई, 2 ममं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं जाव 1. (क) एगेणं समएणं उवयाइ अहे ण जोयणं, एगणेव समएण तिरिय दिवडढं गच्छद, उडद दो जोयणाशि सक्को / चणिकार, भगवती. अ. वृत्ति, प. 178 (ख) भगवती सूत्र अ. बत्ति पत्रांक 178-179 इन्द्रादि के गमन का यंत्र-- गमनकर्ता | गमनकाल गमनकाल ऊर्ध्व तिर्यक् / अधः शकेन्द्र 1 समय 8 कोश (दो योजन) चमरेन्द्र 1 ममय त्रिभागन्यून 3 कोश / 6 कोश = // योजन त्रिभागन्यून 6 कोश = 1 // योजन त्रिभागसहित 3 कोश 4 कोश (1 योजन) 8 कोश (2 योजन) त्रिभागन्यून 4 कोश-१ योजन वज 1 समय 4 कोश (1 योजन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org