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________________ 80] [ ग्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सुषमसुषमाकालीन भारतवर्ष के भाव-आविर्भाव का निरूपण 6. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे इमोसे प्रोसरिफणीए सुसमसुसमाए समाए उत्तमढपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए प्रागारभावपडोगारे होत्था ? गोतमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहानामए प्रालिंगपुक्खरे ति वा, एवं उत्तरकुरुवत्तन्वया' नेयम्वा जाव प्रासयंति सयंति / तीसे णं समाए भारहे वासे तत्थ तत्थ देसे देसे तहि तहि बहवे उराला कुद्दाला जाव कुसविकुसविसुद्ध रुक्खमूला जाव छविहा मणूसा अणुसज्जित्था, तं०--- पम्हगंधा 1 मियगंधा 2 अममा 3 तेयली 4 सहा 5 सणिचारी 6 / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥छ8 सए : सत्तमो सालिउद्देसो समत्तो॥ [6 प्र.] भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्तमार्थ-प्राप्त इस अवसर्पिणीकाल के सुषम-सुषमा नामक पारे में भरतक्षेत्र (भारतवर्ष) के आकार (प्राचार-) भाव-प्रत्यवतार (प्राचारों और पदार्थों के भाव-पर्याय-अवस्था) किस प्रकार के थे ? [9 उ.] गौतम ! (उस समय) भूमिभाग बहुत सम होने से अत्यन्त रमणीय था / जैसे-कोई मुरज (प्रालिंग-तबला) नामक वाध का चर्ममण्डित मुखपट हो, वैसा बहुत ही सम भरतक्षेत्र का भूभाग था। इस प्रकार उस समय के भरतक्षेत्र के लिए उत्तरकुरु की वक्तव्यता के समान, यावत् बैठते हैं, सोते हैं, यहां तक वक्तव्यता कहनी चाहिए। उस काल (अवसर्पिणी के प्रथम पारे) में भारतवर्ष में उन-उन देशों के उन-उन स्थलों में उदार (प्रधान) एवं कुद्दालक यावत् कुश और विकुश से विशुद्ध वृक्षमूल थे; यावत् छह प्रकार के मनुष्य थे / यथा- (1) पद्मगन्ध वाले, (2) मृग (कस्तूरी के समान) गन्ध वाले, (3) अमम (ममत्वरहित), (4) तेजतली (तेजस्वी एवं रूपवान्), (5) सहा (सहनशील) और शनैश्चर (उत्सुकतारहित होने से धोरे-धीरे गजगति से चलने वाले) थे। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरने लगे। 1. जीवाभिगम सूत्र में उक्त उत्तरकुरुवक्तव्यता इस प्रकार है--'मुइंगपुक्खरे इवा, सरतले इ वा-सरस्तलं सर एव, करतले इ वा-करतलं कर एव, इत्यादीति / एवं भूमिसमताया भूमिभागगततृण-मणोनां वर्णपञ्चकत्य, सुरभिगन्धस्य, मृदुस्पर्शस्य, शुभशब्दस्य, वाप्यादीनां वाप्याद्यनुगतोत्पातपर्वतादीनामुत्पातपर्वताद्याश्रितानां हंसासनादीनां लतागृहादीनां शिलापट्टकादीनां च वर्णको वाच्यः / तदन्ते चैतद् दृश्यम्-तत्थ णं बहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओ य आसयंति सयंसि चिट्ठति निसीयंसि तुपट्ठति / इत्यादि'-जीवाभिगम म. वृति / 2. 'जाव' शब्द से कयमाला णट्टमाला इत्यादि तथा वृक्षों के नाम-"उद्दालाः कोहाला: मोद्दालाः कृतमालाः नृत्तमालाः वृत्तमाला: दन्तमालाः शृङ्गमालाः शङ्खमाला: श्वेतमालाः नाम द्रमगणाः" समझ लें। (पत्र 264-2) / जाव शब्द मूलमंतो कंदमंतो इत्यादि का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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