________________ 562] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गंगदत्तदेव की दिव्य ऋद्धि प्रादि के सम्बन्ध में प्रश्न : भगवान द्वारा पूर्वभव-वृत्तान्तपूर्वक विस्तृत समाधान 15. 'भंते !' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वदासी-गंगदत्तस्स णं भंते ! देवस्स सा दिव्या देविट्टी दिव्या देवजुती जाव अणुप्पविट्ठा ? गोयमा! सरीरं गया, सरीरं अणुप्पविट्ठा / कूडागारसालादिद्रुतो जाव सरोरं अणुप्पविट्ठा / अहो ! णं भंते ! गंगदत्ते देवे महिढीए जाब महेसक्खे / [15 प्र.] 'भगवन !' इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! गंगदत्त देव की वह दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति यावत् कहाँ गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ?' [15 उ. गौतम ! (गंगदत्त देव की वह दिव्य देवद्धि इत्यादि) यावत् उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हो गई। यहाँ कुटाकारशाला का दृष्टान्त, यावत् वह शरीर में अनुप्रविष्ट हुई, (यहाँ तक समझना चाहिए।). (गौतम-) अहो ! भगवन् ! गंगदत्त देव महद्धिक यावत् महासुखसम्पन्न है ! 16. गंगदत्तेणं भंते ! देवेणं सा दिया देविट्टी दिव्वा देवजुती किण्णा लद्धा जाव जणं गंगदत्तणं देवेणं सा दिव्या देविड्डी जाव अभिसमन्तागया? 'गोयमा!" ई समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी--"एवं खलु गोयमा ! "तेणं कालेणं तेणं समयेणं इहेव जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे हथिणापुरे णाम नगरे होत्था, वण्णओ / सहसंबवणे उज्जाणे, वष्णयो। तत्थ णं हस्थिणापुरे नगरे गंगदत्ते नाम गाहावती परिवसति अड्ढे जाव अपरिभूते।" "तेणं कालेणं तेणं समयेणं मुणिसुध्वए अरहा श्रादिगरे जाव सवण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव पकडिज्जमाणेणं पकड्थिन्जमाणेणं सीसगणसंपरिवुडे पुवाणुपुद्वि चरमाणे गामाणुगामं जाव जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरति / परिसा निग्गता जाव पज्जुवासति / " तए णं से गंगदत्ते गाहावती इमीसे कहाए लठे समाणे हद्वतुट्ठ० हाते कतबलिकम्मे जाव सरीरे सातो गिहातो पडिनिक्खमति, 2 पादविहारचारेणं हस्थिणापुर नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छति, नि० 2 जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव मुणिसुन्धए अरहा तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 मुणिसुव्वयं अरहं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासति / " "तए णं मुणिसुन्वए अरहा गंगदत्तस्स गाहावतिस्स तीसे य महति जाव परिसा पडिगता।" "तए णं से गंगदत्ते गाहावती मुणिसुव्वयस्स अरहो अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुद० उढाए उठेति, उ० 2 मुणिसुन्वतं अरहं वंदति नमंसति, वं० 2 एवं वदासी-'सहहामि गं भंते ! निग्गंथ पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वदह / जे नवरं देवाणुप्पिया ! जेटुपुत्तं कुडुबे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुडे जाव पन्वयामि" / 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org