________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] [49 परिवसना (निवास)—सिद्ध होने वाले जीव सर्वार्थसिद्ध महाविमान के ऊपर की स्तूपिका के अग्रभाग से 12 योजन ऊपर जाने के बाद ईषत-प्रारभारा नाम की पृथ्वी है, जो 45 लाख योजन लम्बी-चौड़ी है, वर्ण से अत्यन्त श्वेत है, अतिरम्य है, उसके ऊपर वाले योजन पर लोक का अन्त होता है। उक्त योजन के ऊपर वाले एक गाऊ (गव्यूति) के उपरितन 1/6 भाग में सिद्ध निवास करते हैं। इसके पश्चात् सारी सिद्धण्डिका, यावत्-~-समस्त दुःखों का छेदन करके जन्म-जरा-मरण के बन्धनों से विमुक्त, सिद्ध, शाश्वत एवं अव्याबाध सुख का अनुभव करते हैं; यहाँ तक कहना चाहिए।' DB ॥ग्यारहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 520-521 / / (ख) औपपातिकसूत्र, सू. 43, पत्र 112 (आगमोदय.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org