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________________ 574] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सातवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर हजारों तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त एक महासागर को अपनी भुजाओं से तिरा हुमा देख कर जागृत हुए, उसका फल यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अनादि-अनन्त यावत् संसार-कान्तार को पार कर गए / / 7 / / आठवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर, तेज से जाज्वल्यमान एक महान् दिवाकर को देख कर जागृत हुए, उसका फल यह कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को अनन्त, अनुत्तर, निरावरण, निर्व्याघात, समप्र, और प्रतिपूर्ण श्रेष्ठ केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ / / 8 / / नौवें स्वप्न में भगवान महावीर स्वामी एक महान् मानुषोत्तर पर्वत को नोल वैडूर्यमणि के समान अपनी प्रांतों से चारों ओर अावेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ देखा, उसका फल यह कि देवलोक असरलोक और मनुष्यलोक में श्रमण भगवान महावीर स्वामी केवलज्ञान-दर्शन के धारक हैं, श्रमण भगवान् महावीर स्वामो ही केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक हैं, इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उदार कीति, वर्ण (स्तुति), शब्द (सम्मान या प्रशंसा) और श्लोक (यश) को प्राप्त हुए / / / / दसवें स्वप्न में श्रमण भगवान् स्वामी एक महान् मेरुपर्वत की मन्दर-चूलिका पर अपने आपको सिंहासन पर बैठे हुए देख कर जागृत हुए उसका फल यह कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने केवलज्ञानो होकर देवों मनुष्यों और असुरों को परिषद् के मध्य में धर्मोपदेश दिया यावत् (धर्म) उपदर्शित किया / विवेचन - प्रस्तुत दो सूत्रों (20-21) में शास्त्रकार ने भगवान् महाबोर द्वारा छद्माथअवस्था को अन्तिम रात्रि में देखे गए दस स्वप्नों तथा उन दसों के क्रमशः फल का वर्णन किया है / छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसिः--दो अर्थ-इस पाठ के दो अर्थ मिलते हैं -(1) छद्मस्थावस्था की अन्तिम रात्रि में अर्थात-जिस रात्रि में ये स्वप्न देखे थे, उसके पश्चात उसी रात्रि में भगवान् छद्मस्थावस्था से निवृत्त होकर केवलज्ञानो हो गए थे। (2) छद्मस्थावस्था को रात्रि के अन्तिम भाग (पिछले प्रहर) में / यहाँ किसो रात्रिविशेष का निर्देश नहीं किया गया है, किन्तु महापुरुषों द्वारा देखे हुए शुभस्वप्नों का फल तत्काल हो मिला करता है। अतः इन दोनों अर्थों में से पहला अर्थ ही उचित एवं संगत प्रतीत होता है / ' कठिनशब्दार्थ तालपिसायं--ताड़ वृक्ष के समान लम्बा पिशाच / सुक्किलपक्खगं ---सफेद पांखों वाले। पसकोइलं-स्कोकिल-पूरुषजाति का कोयल / दामदुर्ग-माला-युगल / सेयं. श्वेत / उम्मोवीयोसहस्स-कलियं--हजारों तरंगों और बोचियों (छोटी तरंगों) से कलित आवेढियं चारों ओर से वेष्टित / परिवेढियं-बारंबार वेष्टित / तेणं-(१) प्रांतों से, अथवा अन्तरंगभागों से / हरिवेरुलियवण्णाभेणं-हरित (नोल) वैडूर्यमणि के वर्ण के समान / आघवेइसामान्य-विशेष रूप से कथन करते हैं। पनवेइ-सामान्य रूप से प्रशप्त करते हैं। परूवेइ–प्रत्येक सूत्र का अर्थपूर्वक विवेचन करते हैं / दसेइ-उसे सकल नय-युक्तियों से बतलाते हैं। निदंसेइ-अनुकम्पा पूर्वक निश्चित वस्तुम्वरूप का पुनः पुनः कथन करते हैं या उदाहरण पूर्वक समझाते हैं। चाउव 1. (क) 'रात्रे रन्तिमे भागे' -भगवती अ. वृत्ति. पत्र 711 (ख) भगवनी. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2561 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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