________________ पैतीसवां शतक : उद्देशक 3-11] [705 अचरमसमय०--जिस एकेन्द्रिय जीवों का 'चरमसमय नहीं है, वे 'अचरमसमय-कृतयुग्मकृतयुग्म-ए केन्द्रिय' कहे गए हैं। प्रथम-प्रथमसमय०--जो एकेन्द्रिय जीव प्रथमसमयोत्पन्न हों और कृतयुग्म-कृतयुग्मत्व के अनुभव के प्रथमसमय में वर्तमान हों, वे प्रथम-प्रथमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय कहलाते हैं / प्रथम-अप्रथमसमय-प्रथमसमयोत्पन्न होते हुए भी जिन एकेन्द्रिय जीवों ने कृतयुग्मकृतयुग्म राशि का पूर्वभव में अनुभव किया हुआ हो, वे एकेन्द्रिय जीव (जिनका सप्तम उद्देशक में वर्णन है ), प्रथम-अप्रथमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय कहलाते हैं। यहाँ उत्पत्ति के प्रथमसमय में एकेन्द्रियत्व में वर्तमान तथा पूर्वभव में कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिसंख्या का अनुभव किया हुआ होने से इन्हें प्रथम-अप्रथम-समयवर्ती कहा गया है। प्रथम-चरम-समय०--कृतयुग्म-कृतयुग्मसंख्या के अनुभव के प्रथम-समयवर्ती और चरमसमय अर्थात् मरणसमयवर्ती होने से इन्हें 'प्रथम-चरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहा गया है, जिनका कथन आठवें उद्देशक में किया गया है / प्रथम-अचरमसमय०—कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि के अनुभव के प्रथमसमय में वर्तमान तथा अचरम अर्थात् एकेन्द्रियोत्पत्ति के प्रथमसमयवर्ती एकेन्द्रिय जीवों को 'प्रथम-अचरमसमय-कृतयुग्मकृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहा गया है, क्योंकि इनमें चरमत्व का निषेध है / यदि ऐसा न हो तो द्वितीय उद्देशक में कही हुई अवगाहना आदि की सदृशता इनमें घटित नहीं हो सकती। इसलिए नौवे उद्देशक में 'प्रथम-अचरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' का कथन किया गया है / चरम-चरमसमय-जो कृतयुग्म-कृतयुग्मसंख्या के अनुभव के चरम अर्थात् अन्तिम समय में वर्तमान हों तथा जो चरमसमय, अर्थात् मरणसमयवर्ती हों, उन एकेन्द्रिय जीवों को 'चरमचरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहा गया है, जिनका कथन दसवें उद्देशक में किया गया है। चरम-अचरमसमय०-कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि के अनुभव के चरम अर्थात् अन्तिम-समय में वर्तमान और अचरमसमय अर्थात एकेन्द्रियोत्पत्ति के प्रथमसमयवर्ती जो एकेन्द्रिय हैं, उन्हें 'चरमअचरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहते हैं, जिनका कथन ग्यारहवें उद्देशक में किया गया है / सारांश-प्रथम, तृतीय और पंचम इन तीन उद्देशकों का कथन समान है, क्योंकि इनमें अवगाहना आदि की भिन्नता का कथन नहीं है / शेष पाठ उद्देशकों का कथन एक समान है, उनमें अवगाहना आदि दस बोलों की भिन्नता है। किन्तु चौथे, (छठे), आठवें और दसवें उद्देशक में देवोत्पत्ति और तेजोलेश्या की संभावना न होने से उनका कथन नहीं करना चाहिए।' // पैंतीसवें शतक में प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक के तीसरे से ग्यारहवाँ उद्देशक संपूर्ण / ॥प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त // 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3745-46 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org