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________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 3] [377 जीवाभिगमसूत्रातिदेशपूर्वक नयिकों के द्वारा बोस प्रकार के परिणामानुभव का प्रतिपादन 14. रतणप्पभापुढविनेरइया णं भते / केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा! प्रणिटुंजाब अमणाम।। [14 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलपरिणामों का अनुभव करते रहते हैं ? [14 उ.] गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम (मन के प्रतिकूल पुद्गलपरिणाम) का अनुभव करते रहते हैं। 15. एवं जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया / [15] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों तक कहना चाहिए / 16. एवं वेदणापरिणामं / [16] इसी प्रकार वेदना-परिणाम का भी (अनुभव करते हैं / ) 17. एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए, जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं परिग्गहसण्णापरिणाम पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणि? जाव अमणामं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // चोइसमे सए : तइयो उद्देसश्रो समत्तो // 14-3 // [17] इसी प्रकार जोवाभिगमसूत्र (की तृतीय प्रतिपत्ति) के द्वितीय नैरयिक उद्देशक में जैसे कहा है, वैसे यहाँ भी वे समग्र ग्रालापक कहने चाहिए यावत् [प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक, किस प्रकार के परिग्रहसंज्ञा-परिणाम का अनुभव करते रहते हैं ? [उ.] गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम परिग्रहसंज्ञा-परिणाम का अनुभव करते हैं, (यहाँ तक समझना चाहिए।) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरत हैं। विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू 14 से 17 तक) में जीवाभिगमसूत्र के अतिदेशपूर्वक सातों नरकपृथ्वियों के नैरयिकों द्वारा पुद्गलपरिणाम, वेदनापरिणाम आदि बीस परिणाम-द्वारों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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