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________________ छब्बीसवें से उनतीसवें शतक : प्राथमिक] [525 कर्म को शुभ या पुण्यकर्म में परिणत कर सकता है / समिति, गुप्ति, व्रताचरण, तपश्चर्या आदि द्वारा शुभ या अशुभ कर्मों को क्षीण कर सकता है। चतुर्भगी बताने का एक उद्देश्य यह भी प्रतीत होता है कि कोई सम्यग्दृष्टि साधक चाहे तो तृतीय या चतुर्थ भंग का (मोक्ष का) अधिकारी भी हो सकता है तथा अशुभ या पापकर्म करे तो नरकगति या तिर्यंचगति का पथिक भी हो सकता है। * अट्ठाईसवें शतक के प्रथम उद्देशक के वर्णन से यह भी फलित होता है कि जीव ने पापकर्म का समर्जन या आचरण एक गति में अज्ञानवश कर लिया हो तो दूसरी शुभगति में उत्पन्न होकर और विवेकपूर्वक कृत पापाचरण की शुद्धि करना चाहे तो कर सकता है। * इन चारों शतकों की मुख्य प्रेरणा का स्वर यही है कि जीव को अपनी प्रात्मा की विशुद्धि एवं पवित्रता के लिए कर्मबन्ध, चाहे किसी भी रूप में हो, स्वयमेव समभाव से भोग कर छुटकारा पा लेना चाहिए। * ग्यारह स्थानों में से कई स्थान, (यथा-लेश्या, योग, अज्ञान, कषाय, वेद, संज्ञा, मिथ्यादष्टि आदि) ऐसे हैं जो कर्मबन्ध के साक्षात् या परम्परा से कारण हैं, उन पर मनन-पालोचन करके उनको त्यागने का प्रयत्न करना चाहिए और अलेश्यत्व, अकषायत्व, अयोगित्व, अवेदकत्व, असंज्ञित्व प्रादि प्राप्त करके आत्मा को निज-शुद्धस्वरूप में रमण कराने का प्रयत्न करना चाहिए। * कुल मिला कर ये चारों शतक एक दूसरे से सापेक्ष हैं, प्रात्मशुद्धि के प्रेरक हैं, जीवन की उच्चता-आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त कराने में मार्गद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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