________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9] |213 विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (17 से 20 तक) में पूर्वोक्त पंचविध देवों की विक्रियासामर्थ्य का प्रतिपादन किया गया है / विकुवंणा-समर्थ भव्यद्रव्यदेव-वे ही भव्य द्रव्यदेव मनुष्य और तिर्यंच एक या अनेक रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं, जो वैक्रिय लब्धिसम्पन्न हों।' देवाधिदेव की वैक्रिय शक्ति देवाधिदेव एक रूप या अनेक रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं, वैक्रिय शक्ति होते हुए भी वे सर्वथा उत्सुकतारहित होने से विकुर्वणा नहीं करते। निष्कर्ष यह है कि वैक्रिय सम्प्राप्ति होते हुए भी उनके द्वारा शक्ति-स्फोट, कदापि (तीन काल में भो) नहीं किया जाता / विक्रिया उनमें लब्धिमात्र रहती है / कठिनशब्दार्थ-एगत्तं- एकत्व-एक रूप, पहुसं-पृथक्त्व अथवा नानारूप / पंचविधदेवों को उद्वर्तना-प्ररूपमा 21. [1] भवियदव्वदेवा णं भंते ! अणंतरं उध्वट्टिता कहिं गच्छति ? कहिं उववजति ? कि नेरइएसु उववज्जंति, जाव देवेसु उववज्जति ? गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरि०, नो मण, देवेसु उववज्जति / [21-1 प्र.] भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव मर कर तुरन्त (बिना अन्तर के) कहाँ (किस गति में) जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे (मर कर तुरन्त) नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, यावत् अथवा देवों में उत्पन्न होते हैं ? [21-1 उ.] गौतम ! (वे मर कर तुरन्त) न तो नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, न तिर्यञ्चों में और न मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु (एकमात्र) देवों में उत्पन्न होते हैं / [2] जई देवेसु उववज्जति? सम्वदेवेसु उववज्जति जाव सव्वसिद्ध त्ति / 21-2 प्र.] यदि (वे) देवों में उत्पन्न होते हैं (तो भवनपति आदि किन देवों में उत्पन्न होते हैं ?) 21-2 उ.) (गौतम ! ) वे सर्वदेवों में उत्पन्न होते हैं, (अर्थात्---असुरकुमार प्रादि से लेकर) यावत्-सर्वार्थसिद्ध तक (उत्पन्न होते हैं।) 22 [1] नरदेवा णं भंते ! अणंतरं उद्वित्ता० पुच्छा। गोयमा ! मेरइएसु उबवज्जति, मो तिरि०, नो मणु०, नो देवेसु उववज्जति / 22.1 प्र. भगवन् ! नरदेव मर कर तुरन्त (बिना अन्तर के) कहाँ (किस गति में) (जाते हैं, कहाँ) उत्पन्न होते है ? 1. भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 586 2. वहीं, पत्र 586 3. वही पत्र 586 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org