________________ 212] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र भावबेबों की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति-व्यन्तरदेवों को श्रायु 10 हजार वर्ष की है, इसलिए देवों की जघन्य स्थिति 10 हजार वर्ष की ही है। देवों की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागरोपम की है, यथा—सर्वार्थसिद्ध देवों की स्थिति 33 सागरोपम की है।' पंचविध देवों की वैक्रियशक्ति का निरूपण 17. भवियदधदेवा णं भंते ! कि एगत्तं पभू विउवित्तए, पुहत्तं पि पभू विउवित्तए ? गोयमा !एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पुहत्तं पि पभू विउठवत्तए / एगतं विउव्यमाणे एगिदियरूवं वा जाव पंचिदियरूवं वा, पुहत्तं विउवमाणे एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिदियरूवाणि वा / ताई संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणिवा, संबद्धाणि वा असंबद्घाणि वा, सरिसाणि वा असरिसाणि वा विउति, विउवित्ता तो पच्छा जहिच्छियाइं करेंति / [17 प्र.] भगवन् ! क्या भव्यदेव एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है अथवा अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [17 उ.] गौतम ! वह एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है और अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में भी / एक रूप की विकुर्वणा करता हुआ वह एक एकेन्द्रिय रूप यावत् अथवा एक पंचेन्द्रिय रूप की विकुर्वणा करता है। अनेक रूपों की विकुर्वणा करता हुअा अनेक एकेन्द्रिय रूपों यावत् अथवा अनेक पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा करता है। बे रूप संख्येय या असंख्येय, सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध अथवा सदृश या असदृश विकुर्वित किये जाते हैं। विकुर्वणा करने के बाद वे अपना यथेष्ट कार्य करते हैं 18. एवं नरदेवा वि, धम्मदेवा वि। [18] इसी प्रकार नरदेव और धर्मदेव के द्वारा विकुर्वणा के विषय में भी (समझना चाहिए।) 19. देवाहिदेवा पं० पुच्छा। गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पुहत्तं पिपभू विउम्वित्तए, नो चेव गं संपत्तीए विउब्बिसु वा, विउव्वंति वा, विउविसंति वा। | 16 प्र.| देवाधिदेव (के विकुर्वणा-सामर्थ्य ) के विषय में प्रश्नः—(क्या वे एक रूप या अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ?) [96 उ.] गौतम ! (वे) एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं और अनेक रूपों को विकुर्वणा करने में भी समर्थ हैं। किन्तु शक्ति होते हुए भी उत्सुकता के अभाव में उन्होंने क्रियान्विति रूप में कभी वि कुर्वणा नहीं की, नहीं करते हैं और न करेंगे। 20. भावदेवा जहा भवियदव्वदेवा / 20] जिस प्रकार भव्य-द्रव्यदेव (के विकुर्वणा-सामर्थ्य) का (कथन किया) है, उसी प्रकार भावदेव (के विकुर्वणा-सामर्थ्य ) का (कथन करना चाहिए / ) 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 586 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org