________________ ग्रंथम शतक : उद्देशक-६ ] [ 157 [2] से केणणं भंते ! एवं बुच्चति प्रदविहा जाव जीवा कम्मसंगहिता ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे वस्थिमाडोवेति, वस्थिमाडोवित्ता अपि सितं बंधति, बंधित्ता मज्झे गं गठि बंधति, मज्झे गाँठ बंधित्ता उरिल्लं गठि मुयति, मुइत्ता उवरिल्लं देसं वामेति, उरिल्लं देसं वामेत्ता उरिल्लं पाउयायस्स पूरेति,पूरिता उपि सितं बंधति, बंधित्ता मझिल्लं गठि मुति / से नूणं गोतमा ! से पाउयाए तस्स वाउयायस्स उपि उवरितले चिटुति ? हंता, चिटुति। से तेणढणं जाव जीवा कम्मसंगहिता। [25-2 प्र.] भगवन् ! इस प्रकार कहने का क्या कारण है कि लोक की स्थिति आठ प्रकार की है और यावत् जीवों को कर्मों ने संग्रह कर रखा है ? [25-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष चमड़े की मशक को वायु से (हवा भर कर) फुलावे; फिर उस मशक का मुख बांध दे, तत्पश्चात् मशक के बीच के भाग में गांठ बांधे; फिर मशक का मुह खोल दे और उसके भीतर की हवा निकाल दे; तदनन्तर उस मशक के ऊपर के (खाली) भाग में पानी भरे; फिर मशक का मुख बंद कर दे, तत्पश्चात् उस मशक की बीच की गांठ खोल दे, तो हे गौतम ! वह भरा हुआ पानी क्या उस हवा के ऊपर ही ऊपर के भाग में रहेगा ? (गौतम-) हाँ, भगवान् ! रहेगा। (भगवान्-~-) 'हे गौतम ! इसीलिए मैं कहता हूं कि यावत्-कर्मों को जीवों ने संग्रह कर रखा है। [3] से जहा वा केई पुरिसे वस्थिमाडोवेति, प्राडोवित्ता कडीए बंधति, बंधित्ता प्रस्थाहमतारमपोरुसियंसि उदल प्रोगाहेज्जा। से नणं गोतमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले चिति ? हंता, चिट्ठति / एवं वा अविहा लोयद्विती पण्णत्ता जाव जीवा कम्मसंगहिता / [25-3 उ.] अथवा हे गौतम ! कोई पुरुष चमड़े की उस मशक को हवा से फुला कर अपनी कमर पर बांध लें, फिर वह पुरुष अथाह, दुस्तर और पुरुष-परिमाण से (जिसमें पुरुष मस्तक तक डूब जाए, उससे) भी अधिक पानी में प्रवेश करे; तो हे गौतम ! वह पुरुष पानी की ऊपरी सतह पर ही रहेगा? (गौतम -) हां, भगवन् ! रहेगा। (भगवान्-) हे गौतम ! इसी प्रकार लोक की स्थिति आठ प्रकार की कही गई है, यावत्-~कर्मों ने जीवों को संगृहीत कर रखा है।। विवेचन - अष्टविध लोकस्थिति का सदृष्टान्त निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में लोकस्थिति के सम्बन्ध में श्री गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न का भगवान् द्वारा दो दृष्टान्तों द्वारा दिया गया समाधान अंकित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org