________________ 144] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र मिच्छट्ठिी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी 3 / दो अन्नाणा णियम 4 / समुग्घाया आदिल्ला तिन्नि 5 / प्राउं 6, अज्झवसाणा 7, अणुबंधो 8 य जहेव प्रसन्नीणं / प्रवसेसं जहा पढमे गमए जाव कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुत्तमम्भहियाई; उक्कोसेणं चत्तारि सागरोक्माई चहिं अंतोमुहुर्तेहि अग्भहियाई; एवतियं कालं जाव करेज्जा। [सु० 64-65 चउत्यो गमओ] / [65 प्र.] भगवन ! वे जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / ) [65 उ.] गौतम ! यह सब वक्तव्यता उसी (प्रथम) गमक के समान (जाननी चाहिए।) विशेषता इन आठ विषयों में है। यथा-(१) (इनके) शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व (दो धनुष से नौ धनुष तक) की होती है। (2) इनमें प्रथम को तीन लेश्याएं होती हैं। (3) वे सम्यग्दृष्टि नहीं होते, और न ही सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं, एकमात्र मिथ्यादृष्टि होते हैं। (4) इनमें नियम से दो अज्ञान होते हैं / (5) इनमें प्रथम के तीन समुद्धात होते हैं। (6-7-8) इनके अायुष्य, अध्यवसाय और अनुबन्ध का कथन असंज्ञी के समान समझना चाहिए। शेष सब प्रथम गमक के समान, यावत् काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्महुर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम काल तक यावत् इतने काल तक गमनागमन करते हैं / [सू. 64-65 चतुर्थ गमक] 66. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेण वि वसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [66] जघन्य काल की स्थिति वाला, वही (पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक) जीव, (रत्नप्रभापृथ्वी में) जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले तथा उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले (नै रयिकों) में उत्पन्न होता है / 67. ते णं भंते! ? एवं सो चेव चउत्थो गमश्रो निरवसेसो भाणियन्वो जाव कालाएसेणं जहन्नेणं दसयाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साई चहि अंतोमुत्तेहिं अमहियाई; एवतियं जाव करेज्जा / [सु० 66-67 पंचमो गमयो] / [67 प्र.] भगवन ! वे जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ) इत्यादि प्रश्न / [67 उ.] गौतम ! यहाँ सम्पूर्ण कथन पूर्वोक्त चतुर्थ गमक (सू. 64-65) के समान समझना चाहिए; यावत्-काल की अपेक्षा से - जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चालीस हजार वर्ष तक कालयापन करते हैं तथा इतने ही काल तक गमनागमन करता है। [66-67 पंचम गमक] 68. सो च्चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं सागरोवमट्टितीएसु उवबज्जेज्जा, उक्कोसेण वि सागरोवमट्टितीएसु उववज्जेज्जा / [68] वही (जघन्य स्थिति वाला यावत् संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च रत्नप्रभा में) उत्कृष्ट स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य सागरोपम स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट भी सागरोपम स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org