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________________ एगचत्तालीसइमं सयं-रासीजुम्मसयं इकतालीसवां शतक : राशियुग्मशतक * भगवतीसूत्र का यह इकतालीसवां शतक है / इसका नाम राशियुग्मशतक है / युग्म का अर्थ यहाँ युगल है, अर्थात् युगलरूपराशि / इसके भी पूर्ववत् कृतयुग्मादि चार भेद कहे हैं / इस शतक में राशियग्म-कृतयुग्मादि-विशिष्ट, कृष्णादि षटलेश्या-विशिष्ट तथा कृष्णादि लेश्यायुक्त भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि, कृष्णपाक्षिक-शुक्लपाक्षिक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से विचार किया गया है / जैनदर्शन अथवा तीर्थंकरोपदिष्ट सिद्धान्त का चरम लक्ष्य मनुष्य को, विशेषतः साधक को जन्ममरण से तथा सर्वदुःखों से सदा के लिए मुक्ति पाने की प्रेरणा रही है। इसी दृष्टिकोण से शास्त्रकार ने इस शतक का प्रतिपादन किया है। जब तक व्यक्ति जन्म-मरण से मुक्त नहीं होता, तब तक वह अनेकानेक दुःखों, संकटों, चिन्ताओं, भय-आशंका, संज्ञा, कषाय, अज्ञान, मिथ्यादृष्टित्व आदि अनेक विकारों से घिरा रहता है। उसे प्राय: यह भाव ही नहीं रहता कि मैं कहाँ से आया हूँ, कैसे और क्यों यहाँ आया हूँ, यहाँ से मर कर कहाँ जाऊँगा? ये और ऐसे प्रश्न उसके मन-मस्तिष्क में उद्भूत ही नहीं होते हैं। कई मत या दर्शन उसे बहका भी देते हैं कि मनुष्य मर कर दूसरा कुछ हो ही नहीं सकता, वह मनुष्य ही बनता है / अथवा यहाँ शरीर भस्म होने के बाद कहीं जाना-माना नहीं है, पुनर्जन्म नहीं है, अथवा मनुष्य कभी सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो ही नहीं सकता, वह अधिक से अधिक स्वर्ग जा सकता है, स्वर्गीय सुख ही उसके लिए अन्तिम लक्ष्य है, इत्यादि / * ये और ऐसी ही भ्रान्त धारणाओं का निराकरण करने हेतु शास्त्रकार इस शतक में निम्नोक्त प्रश्न उठा कर यथोचित समाधान करते हैं-(१) ये जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?, (2) एक समय में कितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं ?, (3) सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?, (4) किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं ?, (5) वे प्रात्म-यश से उत्पन्न होते हैं या आत्म-अयश से ?, (6) वे अपना जीवन निर्वाह प्रात्म-यश से करते हैं या आत्म-अयश से ?, (7) आत्म-यश से या आत्म-अयश से जीवन निर्वाह करने वाले सलेश्यी होते हैं या अलेश्यी ?, (8) वे क्रियायुक्त होते हैं या क्रियारहित ? और (9) वे एक भव करके जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं अथवा मुक्त नहीं हो पाते? इन प्रश्नों का समाधान ही जन्म-मरण से मुक्ति पाने की ओर अंगुलिनिर्देश करता है / * कुल मिला कर 196 उद्देशकों में विविध पहलुओं से प्रात्मलक्षी चर्चा है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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