________________ 206] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (4) कतिप्रदेश–प्रत्येक इन्द्रिय अनन्त प्रदेशी है / (5) अवगाढ–प्रत्येक इन्द्रिय प्रसंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ है / (6) अल्पबहुत्व-सबसे कम अवगाहना चक्षुरिन्द्रिय को, उससे संख्यातगुणी अवगाहना क्रमशः श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय की है और उससे असंख्यातगुणी अवगाहना रसनेन्द्रिय की और उससे भी संख्यातगुणी स्पर्शेन्द्रिय की अवगाहना है। इसी प्रकार का अल्पबहुत्व प्रदेशों के विषय में समझना चाहिए। (7-8) स्पृष्ट और प्रविष्ट-चक्षुरिन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियां स्पृष्ट और प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती हैं। अर्थात्-चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी हैं, शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं / (9) विषय-श्रोत्रेन्द्रिय के 5, चक्षुरिन्द्रिय के 5, घ्राणेन्द्रिय के 2, रसनेन्द्रिय के 5 और स्पर्शेन्द्रिय के 8 विषय हैं। पांचों इन्द्रियों का विषय जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है, उत्कृष्ट श्रोत्रेन्द्रिय का 12 योजन, चक्षुरिन्द्रिय का साधिक 1 लाख योजन, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय का ह-६ योजन है / इतनी दूरी से ये स्व विषय को ग्रहण कर लेती हैं। इसके पश्चात्(१०) अनगारद्वार, (11) आहारद्वार, (12) आदर्शद्वार, (13) असिद्वार, (14) मणिद्वार, (15) उदपान (दुग्धपान) द्वार, (16) तैलद्वार, (17) फागितद्वार, (18) वसाद्वार, (19) कम्बलद्वार, (20) स्थूणाद्वार, (21) थिग्गलद्वार, (22) द्वीपोदधिद्वार, (23) लोकद्वार और (24) अलोकद्वार / यों अलोकद्वार पर्यन्त चौबीस द्वारों के माध्यम से इन्द्रियसम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। ___ इस सम्बन्ध में विशेष विवेचत प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें इन्द्रियपद के प्रथम-उद्देशक से जान लेना चाहिए।' // द्वितीय शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 131, (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय० वृत्ति, पत्रांक 295 से 308 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org