________________ 132] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 17. [1] जइ णं भंते ! सब्वे भवसिद्धोया जीवा सिस्सिंति तम्हाणं भवसिद्धीविरहिए लोए भविस्सइ? णो इणछे समठे। [17-1 प्र] भगवन् ! यदि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे, तो क्या लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित हो जाएगा? [17-1 उ.] जयन्ती ! यह अर्थ शक्य नहीं है। [2] से केणं खाइएणं अट्ठण भंते ! एवं बुच्चइ-सव्वे वि णं भवसिद्धोया जीवा सिज्झिस्संति, नो चेव णं भवसिद्धीयविरहिते लोए भविस्सति ? जयंती ! से जहानामए सव्वागाससेढी सिया अणादीया अणवदग्गा परित्ता परिवुडा, साणं परमाणुपोग्गलमेत्तेहि खंडेहि समए समए अवहीरमाणी अवहीरमाणी अणताहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहीरति नो चेव णं अवहिया सिया, से तेणठेणं जयंती ! एवं वुच्चइ सव्वे विगं' जाव भविस्सति / [17-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे, फिर भी लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा ? (17-2 उ.] जयन्ती ! जिस प्रकार कोई सर्वाकाश की श्रेणी हो, जो अनादि, अनन्त हो, (एकप्रदेशी होने से) परित्त (परिमित) और (अन्य श्रेणियों द्वारा) परिवत हो, उसमें से प्रतिसमय एक-एक परमाणु-पुद्गल जितना खण्ड निकालते-निकालते अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी तक निकाला जाए तो भी वह श्रेणी खाली नहीं होती / इसी प्रकार, हे जयन्ती। ऐसा कहा जाता है कि सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध होंगे, किन्तु लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा। विवेचन-भवसिद्धिक जीव-विषयक : तीन प्रश्न—प्रस्तुत तीन सूत्रों (15 से 17 तक) में जयन्ती श्रमगोपासिका द्वारा पूछे गए तीन प्रश्न और भगवान् द्वारा प्रदत्त उनका उत्तर प्रतिपादित है। भवसिद्धिक-स्वरूप-जिनकी सिद्धि भावी (भविष्य) में होने वाली है, वे भवसिद्धिक हैं। अथवा जो भव्य हैं, मुक्ति के योग्य हैं, अर्थात्---जिनमें मुक्ति जाने की योग्यता है, वे भवसिद्धिक कहलाते हैं / समस्त भबसिद्धिक जीव एक न एक दिन अवश्य सिद्धि प्राप्त करेंगे, अन्यथा उनमें भवसिद्धिकता ही घटित नहीं हो सकती। ___ इसीलिए यहाँ भगवान् ने बताया है कि भवसिद्धिक जीवों की भवसिद्धिकता स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं / ऐसा नहीं होता कि वे पहले अभवसिद्धिक थे किन्तु बाद में पर्याय-परिवर्तन होने के 1. अधिक पाठ-'णं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिरसंति, नो चेव ण भवसिद्धिनविरहिए लोए भविस्मइ।" यह पंक्ति यहां 'जाब' शब्द से सूचित है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org