________________ छठा शतक : उद्देशक-७ ] |77 एतेसि पल्लाणं कोडाफोडी हवेज्ज दसगुणिया / तं सागरोवमस्स तु एक्कस्स भवे परीमाणं // 5 // [7 प्र.] भगवन् ! 'पल्योपम' (काल) क्या है ? तथा 'सागरोपम' (काल) क्या है ? 7i उ.] हे गौतम ! जो सुतीक्ष्ण शस्त्रों द्वारा भी छेदा-भेदा न जा सके, ऐसे परम-अण (परमाण) को सिद्ध (ज्ञानसिद्ध केवली) भगवान् समस्त प्रमाणों का आदिभूत प्रमाण कहते हैं। ऐसे अनन्त परमाणुपुद्गलों के समुदाय की समितियों के समागम से एक उच्छ्लक्ष्ण श्लक्षिाका, श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, ऊर्ध्वरेणु, वसरेणु, रथरेणु, बालाग्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य और अंगुल होता है / पाठ उच्छलक्ष्ण-श्लक्ष्णिका के मिलने से एक श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिका होती है। पाठ श्लक्ष्ण-श्लक्षिणका के मिलने से एक ऊर्ध्वरेणु, आठ ऊर्ध्वरेणु मिलने से एक त्रसरेणु, पाठ त्रसरेणुगों के मिलने से एक रथरेण और पाठ रयरेणुओं के मिलने से देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालात्र होता है, तथा देवकर और उत्तरकर क्षेत्र के मनुष्यों के पाठ बालानों से हरिवर्ष और रम्यकवर्ष के मनूष्यों का एक बालाग्र होता है / हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष के मनुष्यों के आठ बालानों से हैमवत और ऐरावत के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। हैमवत और ऐरावत के मनुष्यों के पाठ बालानों से पूर्व विदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है / पूर्वविदेह के मनुष्यों के पाठ बालानों से एक लिक्षा (लोख), आठ लिक्षा से एक यूका (ज), पाठ यूका से एक यवमध्य और पाठ यवमध्य से एक अंगुल होता है। इस प्रकार के छह अंगुल का एक पाद (पैर), बारह अंगुल की एक वितस्ति (बेत), चौबीस अंगुल का एक हाथ, अड़तालीस अंगुल की एक कुक्षि, छियानवे अंगुल का दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मूसल होता है / दो हजार धनुष का एक गाऊ होता है और चार गाऊ का एक योजन होता है / इस योजन के परिमाण से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा (ऊपर में ऊँचा), तिगुणो से अधिक परिधि वाला एक पल्य हो, उस पत्य में एक दिन के उगे हुए, दो दिन के उगे हुए, तीन दिन के उगे हुए, और अधिक से अधिक सात रात्रि के उगे हुए करोड़ों बालान, किनारे तक ऐसे ठूस-ठूस कर भरे हों, संनिचित (इकट्ठ) किये हों, अत्यन्त भरे हों, कि उन बालानों को अग्नि न जला सके और हवा उन्हें उड़ा कर न ले जा सके; वे बालाग्न सड़ें नहीं, न ही परिध्वस्त (नष्ट) हों, और न ही वे शीघ्र दुर्गन्धित हों। इसके पश्चात् उस पल्य में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक बालाग्र को निकाला जाए / इस क्रम से तब तक निकाला जाए, जब तक कि वह पल्य क्षीण हो, नीरज हो, निर्मल हो, निष्ठित (पूर्ण) हो जाए, निर्लेप हो, अपहृत हो और विशुद्ध (पूरी तरह खाली)हो जाए / उतने काल को एक 'पल्योपमकाल' कहते हैं / (सागरोपमकाल के परिमाण को बताने वाली गाथा का अर्थ इस प्रकार है- इस पल्योपम काल का जो परिणाम पर बतलाया गया है, वैसे दस कोटाकोटि (गुणे) पल्योपमों का एक सागरोपम-कालपरिमाण होता है / 8. एएणं सागरोवमपमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीग्रो कालो सुसमसुसमा 1, तिणि सागरोवमकोडाकोडोप्रो कालो सुसमा 2, दो सागरोवमकोडाकोडीनो कालो सुसमदूसमा 3, एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसमसुसमा 4, एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसमा 5, एक्कवीसं बाससहस्साई कालो दूसमवूसमा 6 / पुणरवि उस्सपिणीए एक्कवीसं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org