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________________ 320] {व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अलोकाकाश की श्रेणियों के प्रदेशों में कृतयुग्मादि चारों भेद पाए जाते हैं / इसमें वस्तुस्वभाव ही मुख्य हैं।' श्रेणी के प्रकारएन्तर से सात भेद 108. कति णं भंते ! सेढोनो पन्नत्तानो ? गोयमा ! सत्त सेढीओ पन्नत्तानो, तं जहा उज्जुप्रायता, एगतोवंका, दुहतोयंका, एगोखहा, बुहतोखहा, चक्कवाला, प्रद्धचक्कवाला। [108 प्र.] भगवन् ! श्रेणियाँ कितनी कही हैं ? [108 उ.] गौतम ! श्रेणियाँ सात कही हैं / यथा-(१) ऋज्वायता, (2) एकतोवक्रा, (3) उभयतोवक्रा, (4) एकतःखा, (5) उभयतःखा, (6) चक्रवाल और (7) अर्द्धचक्रकाल / / विवेचन–श्रेणी : उसके प्रकार और स्वरूप- श्रेणियों का वर्णन इससे पूर्व किया जा चुका है। किन्तु यहाँ प्रकारान्तर से श्रेणियों का वर्णन किया गया है। यहाँ उनके सात भेद बताए हैं। जिसके अनुसार जीव और पुद्गलों की गति होती हैं, उस अाकाशप्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं / जीव और पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान श्रेणी के अनुसार ही जाते हैं, विश्रेणी (विरुद्ध श्रेणी) से गति नहीं होती। 1. ऋज्वायता—जिस श्रेणी से जीव ऊर्ध्वलोक आदि से अधोलोक आदि में सीधे चले जाते हैं, उसे ऋज्वायता श्रेणी कहा जाता है / इस श्रेणी से जाने वाला जीव एक ही समय में गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है / रेखाचित्र [-] इस प्रकार है। 2. एकतोवक्रा-जिस श्रेणी से जीव पहले सीधा जाए और फिर वक्तगति प्राप्त करके दूसरी श्रेणी में प्रवेश करे, उसे एकतोवका कहते हैं। इस श्रेणी से जाने वाले जीव को दो समय लगते हैं / रेखाचित्र / इस प्रकार है। 3. उभयतोवका-जिस श्रेणी से जाने वाला जीव दो बार वक्रगति करे, उसे उभयतोवक्रा कहते हैं। इस श्रेणी से गति करने वाले जीव को तीन समय लगते हैं। यह श्रेणी ऊर्ध्वलोक की आग्नेयी ( पूर्व और दक्षिण के मध्य कोण ) विदिशा से अधोलोक की वायव्य ( उत्तर-पश्चिम-कोण ) विदिशा में उत्पन्न होने वाले जीव की होती है / यह पहले समय में आग्नेयी विदिशा से तिरछा पश्चिम की ओर दक्षिण दिशा के नैऋत्य कोण की ओर जाता है। फिर दूसरे समय में वहाँ से तिरछा होकर उत्तर-पश्चिम वायव्य कोण की ओर जाता है और तीसरे समय में नीचे वायव्यकोण की ओर जाता है / यह तीन समय की गति सनाडी अथवा उससे बाहर के भाग में होती है / 4. एकतः खा--जिस श्रेणी से जीव या पुद्गल त्रसनाडी के बाँए पक्ष से सनाडी में प्रविष्ट होते हैं, फिर सनाडी से जाकर उसके बांयी ओर वाले भाग में उत्पन्न होते हैं उसे एकत.खा श्रेणी कहा जाता है / इस श्रेणी के एक ओर असनाडी के बाहर का 'ख' अर्थात् प्राकाश प्राया हुआ होता 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 867 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3247 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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