________________ दशम शतक : प्राथमिक] [577 / उग्रविन्द्र स्वामी के प्रश्न के उत्तर में स्वयं भगवान बताते हैं कि द्रव्याथिक नय से त्रास्त्रिशक देव प्रवाहरूप से नित्य हैं, किन्तु पर्यायाथिक नय से व्यक्तिगत रूप से पुराने देवों का च्यवन हो जाता है, उनके स्थान पर नये वायस्त्रिशक देब जन्म लेते हैं / त्रायस्त्रिंशक देव बनने के जो कारण बताए हैं, उनसे दो बातें स्पष्ट होती हैं—[१] जो भवनपति देवों के इन्द्रों के त्रास्त्रिशक देव हुए, में पहले रा श्रमणोपासक थे, किन्तु बाद में शिथिलाचारी मादी बन गए तथा अन्तिम समय में संल्लेखना-संथारा के समय आलोचना-प्रतिक्रमणादि नहीं किया, तथा [2] जो वैमानिक देवेन्द्रों के त्रास्त्रिशक देव हुए, वे पूर्वजन्म में पहले और पोछे उविहारी शुद्धाचारी श्रमणोपासक रहे और अन्तिम समय में संलेखना-संथारा के दौरान उन्होंने आलोचना, प्रतिक्रमणादि करके आत्मशुद्धि कर ली / इस समग्र पाठ से यह स्पष्ट है कि वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में त्रास्त्रिशक देव नहीं होते / / * पंचम उद्देशक में चमरेन्द्र आदि भवनवासी देवेन्द्रों तथा उनके लोकपालों का, पिशाच आदि व्यन्तरजातीय देवों के इन्द्रों की, चन्द्रमा सूर्य एवं ग्रहों की एवं शक्रेन्द्र तथा ईशानेन्द्र की अग्रम हिषियों की संख्या, प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार की संख्या एवं अपने-अपने नाम के अनुरूप राजधानी एवं सिंहासन पर बैठकर अपनी-अपनी सुधर्मा सभा में स्वदेवीवर्ग के साथ मैथन निमित्तक भोग भोगने की असमर्थता का निरूपण किया है। * छठे उद्देशक में शक्रेन्द्र की सौधर्मकल्प स्थित सुधर्मा सभा की लम्बाई-चौड़ाई, विमानों की संख्या तथा शक्रेन्द्र के उपपात, अभिषेक, अलंकार, अर्चनिका, स्थिति, यावत् आत्मरक्षक इत्यादि परिवार के समस्त वर्णन का अतिदेश किया गया है / अन्तिम सूत्र में शक्रेन्द्र की ऋद्धि, द्युति, यश, प्रभाव, स्थिति, लेश्या, विशुद्धि एवं सुख आदि का निरूपण भी अतिदेशपूर्वक किया गया है। * सातवें से चौतीसवें उद्देशक तक में उत्तरदिशावर्ती 28 अन्तर्वीपों का निरूपण भी जीवा = __जोवाभिगम सूत्र के अतिदेशपूर्वक किया गया है।' * कुल मिलाकर पूरे शतक में मनुष्यों और देवों की आध्यात्मिक, भौतिक एवं दिव्य शक्तियों का निर्देश किया गया है। 1. बियाहपत्तिसुत्तं, विसयाणुक्कमो पृ. 37-38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org