________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रथम-अप्रथम-लक्षण निरूपण 63. इमा लक्खणगाहा जो जेण पत्तपुचो भावो सो तेणऽपढमओ होति / सेसेसु होइ पढमो प्रपत्तन्वेसु भावेलु // 1 // [63] यह लक्षण गाथा है (गाथार्थ---) जिस जीव को जो भाव (अवस्था) पूर्व (पहले) से प्राप्त है, (तथा जो अनादिकाल से है), उस भाव की अपेक्षा से वह जीव 'अप्रथम' है, किन्तु जिन्हें जो भात्र पहले कभी प्राप्त नहीं हुअा है, अर्थात्-"जो भाव प्रथम बार ही प्राप्त हुआ है, उस भाव की अपेक्षा से वह जीव प्रथम कहलाता है। विवेचन---सेसेसु : भावार्थ-यहाँ 'शेषेषु का भावार्थ है-जिन्हें जो भाव पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है, अर्थात्- जो भाव जिन्हें प्रथम बार ही प्राप्त हुया है।' जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में, पूर्वोक्त चौवह द्वारों के माध्यम से जीवभावादि की अपेक्षा से, एकवचन-बहुवचन से यथायोग्य चरमत्व-अचरमत्व निरूपण 64. जीवे गं भंते ! जीयमावेणं कि चरिमे, अचरिमे ? गोयमा! नो चरिमे, प्रचरिमे। [64 प्र.] भगवन् ! जीव, जीवभाव (जीवत्व) की अपेक्षा से चरम है या अचरम ? [64 उ.] गौतम ! चरम नहीं, अचरम है / 65. नेरतिए णं भंते ! नेरतियभावेणं० पुच्छा। गोयमा! सिय चरिमे, सिय अचरिमे / [65 प्र. भगवन् ! नरयिक जीव, नैरयिकभाव की अपेक्षा से चरम है या अचरम? [65 उ.] गौतम ! वह (नरयिक भाव से) कदाचित् चरम है, और कदाचित् अचरम है। 66. एवं जाव वेमाणिए / [66] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। 67. सिद्ध जहा जीवे। 667] सिद्ध का कथन जीव के समान जानना चाहिए / 68. जीया पं० पुच्छा। गोयमा! नो चरिमा, अचरिमा। [68 प्र.] अनेक जीवों के विषय में चरम-अचरम-सम्बन्धी प्रश्न ? [68 उ.] गौतम ! बे चरम नहीं, अचरम हैं। 14. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 735 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org