________________ 310] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनिलांछित (खस्सो-वधिया न किये हए), और नाक नहीं नाथे हुए बैलों से त्रस प्राणी की हिंसा से रहित व्यापार द्वारा आजीविका करते हुए विहरण (जीवनयापन) करते हैं / 13. 'एए वि ताव एवं इच्छति, किमंग पुण जे इमे समणोवासगा भवंति ?' जेसि नो कप्पति इमाइं पण्णरस कम्मादाणाई सयं करेत्तए वा, कारवेत्तए वा, करेंतं वा अन्नं न समणुजाणेत्तए, तं जहा-इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे माडीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्जे लक्खवाणिज्जे केसवाणिज्जे रसवाणिज्जे विसवाणिज्जे जंतपोलणकम्मे निल्लंछणकम्मे दवग्गिदावणया सर-दह-तलायपरिसोसणया असतीपोसणया। [13] जब इन आजीविकोपासकों को यह अभीष्ट है, तो फिर जो श्रमणोपासक हैं, उनका तो कहना ही क्या ? ; (क्योंकि उन्होंने तो विशिष्टतर देव, गुरु और धर्म का आश्रय लिया है !) जो श्रमणोपासक होते हैं, उनके लिए ये पन्द्रह कर्मादान स्वयं करना, दूसरों से कराना, और करते हुए का अनुमोदन करना कल्पनीय (उचित) नहीं हैं / वे कर्मादान इस प्रकार हैं-(१) अंगारकर्म (2) वनकर्म, (3) शाकटिक कर्म, (5) भाटीकर्म, (6) स्फोटक कर्म, (7) दन्तवाणिज्य, () लाक्षावाणिज्य, (6) रसवाणिज्य, (10) विषवाणिज्य, (11) यंत्रपीडन कर्म, (12) निलांछनकर्म, (13) दावाग्निदापनता, (14) सरो-ह्रद-तडागशोषणता, (15) असतीपोषणता / 14. इच्चेते समणोवासगा सुक्का सुक्काभिजातीया भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / [14] ये श्रमणोपासक शुक्ल (पवित्र), शुक्लाभिजात (पवित्र कुलोत्पन्न) हो कर काल (मरण) के समय मृत्यु प्राप्त करके किन्हीं देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। विवेचन-प्राजीविकोपासकों के सिद्धान्त, नाम, आचार-विचार और श्रमणोपासकों की उनसे विशेषता--प्रस्तुत पांच सूत्रों में आजीविकोपासकों के सिद्धान्त, नाम, आचार-विचार आदि तथ्यों का निरूपण करके श्रमणोपासकों की उनसे विशेषता बताई गई है। श्राजीविकोपासकों का प्राचार-विचार-गोशालक मंखलीपुत्र के शिष्य आजीविक कहलाते हैं। गोशालक के समय में उसके ताल, तालप्रलम्ब ग्रादि बारह विशिष्ट उपासक थे / वे उदुम्बर आदि पांच प्रकार के फल तथा अन्य कुछ फल नहीं खाते थे। जिन बैलों को बधिया नहीं किया गया है, और नाक नाथा नहीं गया है, उनसे अहिंसक ढंग से व्यापार करके वे जीविका चलाते थे। श्रमणोपासकों की विशेषता-पूर्वोक्त 46 भंगों में से यथेच्छ भंगों द्वारा श्रमणोपासक अपने व्रत, नियम, संवर, त्याग, प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करते हैं, जबकि ग्राजीविकोपासक इस प्रकार से हिंसा आदि का त्याग नहीं करते, न ही वे कर्मादान रूप पापजनक व्यवसायों का त्याग करते हैं; श्रमणोपासक तो इन 15 कर्मादानों को सर्वथा त्याग करता है, वह इन हिंसादिमूलक व्यवसायों को अपना ही नहीं सकता। यही कारण है कि ऐसा श्रमणोपासक चार प्रकार के देवलोकों में से किसी एक देवलोक में उत्पन्न होता है; क्योंकि वह जीवन और जीविका दोनों से पवित्र, शुद्ध और निष्पाप होता है, और उसे विशिष्ट देव, गुरु, धर्म की प्राप्ति होती है।' कर्मादान और उसके प्रकारों की व्याख्या---जिन व्यवसायों या कर्मो (आजीविका के कार्यों) 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 371-372, (ख) योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्तिप्रकाश 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org