________________ अष्टम शतक : उद्देशक-५ ] [311 से ज्ञानावरणीय आदि अशुभकर्मों का विशेषरूप से बन्ध होता है, उन्हें अथवा कर्मबन्ध के हेतुओं को कर्मादान कहते हैं। श्रावक के लिए कर्मादानों का आचरण स्वयं करना, दूसरों से कराना या करते हुए का अनुमोदन करना, निषिद्ध है। ऐसे कर्मादान पन्द्रह हैं(१) इंगालकम्मे (अंगारकर्म) अंगार अर्थात् अग्निविषयक कर्म यानी अग्नि से कोयले बनाने और उसे बेचने-खरीदने का धंधा करना। (2) वणकम्मे (वनकर्म) जंगल को खरीद कर वृक्षों, पत्तों आदि को काट कर बेचना, (3) साडीकम्मे (शाकटिककर्म) गाड़ी, रथ, तांगा, इक्का आदि तथा उसके अंगों को बनाने और बेचने का धंधा करना। (4) भाडोकम्मे (माटोकर्म) बैलगाड़ी आदि से दूसरों का सामान एक जगह भाड़े से ले जाना, किराये पर बैल, घोड़ा आदि देना, मकान आदि बना-बनाकर किराये पर देना, इत्यादि धंधों से आजीविका चलाना / (5) फोडीकम्मे (स्फोटकर्म) सुरंग ग्रादि बिछाकर विस्फोट करके जमीन, खान आदि खोदने-फोड़ने का धंधा करना / (6) दंतवाणिज्जे (दन्तवाणिज्य) पेशगी देकर हाथीदांत आदि खरीदने, बनाने व उनसे बनी हुई वस्तुएँ बेचने आदि का धंधा करना / (7) लक्खवाणिज्जे (लाक्षावाणिज्य) लाख का क्रय-विक्रय करके आजीविका करना। (8) केसवाणिज्जे (केशवाणिज्य) केश वाले जीवों का अर्थात्-गाय, भैंस आदि को तथा दास-दासी प्रादि को खरीद-बेचकर व्यापार करना। (6) रसवाणिज्जे (रसवाणिज्य)--मदिरा आदि नशीले रसों को बनाने-बेचने आदि का धंधा करना / (10) विसवाणिज्जे (विषवाणिज्य)-विष (अफीम, संखिया आदि जहर) बेचने का धंधा करना / (11) जंतपीलणकम्मे (यंत्रपीडनकर्म)-तिल, ईख आदि पीलने के कोल्हू, चरखी आदि का धंधा करना यंत्रपीड़नकर्म है / (12) निल्लंछणकम्मे (निाछनकर्म)-बैल, घोड़े आदि को खसी (बधिया) करने का धंधा। (13) दवम्गिदावणया (दावाग्निदापनता)-खेत आदि साफ करने के लिए जंगल में आग लगाना-लगवाना / (14) सर-दह-तलायसोसणया (सरोह्रद-तड़ाग-शोषणता) सरोवर, ह्रद या तालाब आदि जलाशयों को सुखाना / और (15) प्रसईजगपोसणया (प्रसतीजनपोषणता) कुलटा, व्यभिचारिणी या दुश्चरित्र स्त्रियों का अड्डा बनाकर उनसे कुकर्म करवा कर आजीविका चलाना अथवा दुश्चरित्र स्त्रियों का पोषण करना। अथवा पापबुद्धिपूर्वक मुर्गा-मुर्गी, सांप, सिंह, बिल्ली आदि जानवरों को पालना-पोसना / देवलोकों के चार प्रकार 15. कतिविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णता? गोयमा! चउठिवहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवासि-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०। ॥अट्ठमसए : पंचमो उद्देसनो समत्तो॥ [15 प्र.] भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [15 उ.] गौतम ! चार प्रकार के देवलोक कहे गए हैं। यथा--भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कहकर यावत् विचरते हैं। // अष्टम शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org