________________ अष्टम शतक : उद्देशक-५] भूतकाल के प्रतिक्रमण, वर्तमानकाल के संवर और भविष्य के लिए प्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा, इस प्रकार तीनों काल की अपेक्षा 49 भंगों को 3 से गुणा करने पर 147 भंग होते हैं। ये स्थूलप्राणातिपात-विषयक हुए / इसी प्रकार स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन और स्थूल परिग्रह, इन प्रत्येक के 147-147 भंग होते हैं। यों पांचों अणुव्रतों के कुल भंग 735 होते हैं / श्रावक इन 49 भंगों में से किसी भी भंग से यथाशक्ति प्रतिक्रमण, संवर या प्रत्याख्यान कर सकता है / तीन करण तीन योग से संवर या प्रत्याख्यानादि श्रावकप्रतिमा स्वीकार किया हुआ श्रावक कर सकता है।' आजीविकोपासकों के सिद्धान्त, नाम, आचार-विचार और श्रमणोपासकों की उनसे विशेषता 6. एए खलु एरिसगा समणोवासगा भवंति, नो खलु एरिसगा प्राजीवियोवासगा भवंति / [6] श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, किन्तु आजीविकोपासक ऐसे नहीं होते। 10. प्राजीवियसमयस्स णं अयमठे पण्णत्ते-अक्खीणपडिभोइणो सब्वे सत्ता, से हंता छेत्ता भत्ता लुपित्ता विलुपित्ता उद्दवइत्ता प्राहारमाहारेति / {10] आजीविक (गोशालक) के सिद्धान्त का यह अर्थ (तत्त्व) है कि समस्त जीव अक्षीणपरिभोजी (सचित्ताहारी) होते हैं। इसलिए वे (लकड़ी प्रादि से) हनन (ताड़न) करके, (तलवार आदि से) काट कर, (शूल आदि से) भेदन करके, (पंख आदि को) कतर (लुप्त) कर, (चमड़ी आदि को) उतार कर (विलुप्त करके) और विनष्ट करके खाते (आहार करते) हैं। 11. तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा नवंति, तं जहा-ताले 1 तालपलंचे 2 उविहे 3 संविहे 4 प्रवविहे 5 उदए 6 नामुदए 7 णम्मुदए 8 अणुवालए 6 संखवालए 10 अयंबुले 11. कायरए 12 / [11] ऐसी स्थिति (संसार के समस्त जीव असंयत और हिंसादिदोषपरायण हैं, ऐसी परिस्थिति) में आजीविक मत में ये बारह आजीविकोपासक हैं-(१) ताल, (2) तालप्रलम्ब, (3) उद्विध, (4) संविध, (5) अवविध (6) उदय, (7) नामोदय, (8) नर्मोदय, (6) अनुपालक, (10) शंखपालक, (11) अयम्बुल पीर (12) कातरक / 12. इच्चेते दुवालस प्राजोवियोवासगा अरहंतदेवतागा अम्मा-पिउसुस्सूसगा; पंचफलपडिक्कता, तं जहा–उंबरेहि, वडेहि, बोरेहि सतरेहिं पिलंहिपलंडु-ल्हसण-कंद-मूलविवज्जगा प्रणिलंछिएहि अणक्कभिन्नहि गोहि तसपाणविवज्जिएहि चित्तेहि वित्ति कप्पेमाणे विहरंति / [12] इस प्रकार ये बारह आजीविकोपासक हैं। इनका देव अरहंत (स्वमत-कल्पना से गोशालक अर्हत) है। वे माता-पिता की सेवा-शुश्रुषा करते हैं। वे पांच प्रकार के फल नहीं खात (पांच फलों से विरत हैं ।)वे इस प्रकार-उदुम्बर(गुल्लर) के फल, वड़ के फल, बोर, सतर (शहतूत) के फल, पीपल (प्लक्ष) फल तथा प्याज (पलाण्डु), लहसुन, कन्दमूल के त्यागी होते हैं। तथा 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 370-371 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org