SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1715
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 450 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बाहर बहुल ब्राह्मण की प्रशंसा सुनकर अनुमान लगाया कि यहीं भगवान् महावीर होने चाहिए / वह कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर भगवान् से मिला / गोशालक ने बन्दन-नमन करके भगवान् के समक्ष स्वयं को शिष्य रूप में समर्पित कर दिया। भगवान् ने भी उसे स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् गोशालक के साथ भगवान् 6 वर्ष तक विचरण करते रहे। यहाँ तक का वृत्तान्त भगवान् ने फर• माया है।' भावी अनेक अनर्थों के कारणभूत अयोग्य गोशालक को भगवान ने क्यों शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया ? इस प्रश्न का समाधान टीकाकार यों करते हैं उस समय तक भगवान् पूर्ण वीतराग नहीं हुए थे, अतएव परिचय के कारण उनके हृदय में स्नेहगभित अनुकम्पा उत्पन्न हुई, छद्मस्थ होने से भविष्यत् कालीन दोषों की ओर उनका उपयोग नहीं लगा अथवा अवश्य भवितव्य ऐसा ही था, इससे उसे शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया / कठिनशब्दार्थ-- मग्गण-गवेसणं—मार्गण-शोध-खोज और गवेषण पूछताछ या पता लगाना, ढूढना / महुघयसंजुत्तेण-मधु (शक्कर) और घी से युक्त / खज्जगविहीए-खाजे की भोजन विधि से। परमन्नेणं---परमान्न, खीर से / आयामेत्था-आचमन कराया / पणीयभूमीए--(१) पणितभूमि-भाण्डविधाम-स्थान-भण्डोपकरण रख कर विश्राम लेने का स्थान, अथवा प्रणीतभूमिमनोज्ञ भूमि / सउत्तरो?-दाढ़ी-मूछ सहित मस्तक के केशों का / पडिसुर्णेमि—मैंने स्वीकार (समर्थन) किया। गोशालक द्वारा तिल के पौधे को लेकर भगवान् को मिथ्यावादी सिद्ध करने की कुचेष्टा 46. तए णं अहं गोयमा ! अन्नदा कदायि पढमसरदकालसमयंसि अप्पट्टिकायंसि गोसालेणं मंलिपुत्तेणं सद्धि सिद्धत्थगामाप्रो नगराओ कुम्मग्गामं नगरं संपट्टिए विहाराए / तस्स णं सिद्धत्थग्गामस्स नगरस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स य अंतरा एत्थ गं महं एगे तिलभए पत्तिए पुरिफए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे उसोभेमाणे चिति / तए णं से गोसाले मलिपुत्ते तं तिलथंभगं पासति, पा० 2 ममं वंदति नमसति, वं० 2 एवं वदासो-एस णं भते ! लिल भए कि निप्फज्जिस्सति, नो निष्फज्जिस्सति ? एते य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता कहिं गििहति ? कहिं उव वजिहिति ? तए णं अहं गोयमा! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं क्यासी-गोसाला ! एस गं तिलशंभए निष्फज्जिस्सति, नो न निष्फज्जिस्सइ, एए य सत्त तिलयुप्फज़ीवा उदाइत्ता उद्दाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगरस एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाइस्संति / [46] तदनन्तर, हे गौतम ! किसी दिन प्रथम शरत-काल के समय, जब वृष्टि का अभाव था; मंखलिपुत्र गोशालक के साथ सिद्धार्थ ग्राम नामक नगर से कूमंग्राम नामक नगर की ओर 1. वियापण्णत्तिसुत्त भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) पृ. 695 से 698 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 664 3. भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2382 से 2387 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy