SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1714
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पन्द्रहवां शतक] [449 अभिसमन्नागए नो खलु अस्थि तारिसिया अन्नस्स कस्सइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इड्डी जुती जाव परक्कमे लद्ध पते अभिसमन्नागते, तं निस्संदिद्ध णं 'एत्थं ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे भविस्सति' त्ति कटु कोल्लाए सन्निवेसे सम्भितर बाहिरिए ममं सवप्रो समंता मग्गणगवेसणं करेति / ममं सवओ जाव करेमाणे कोल्लागस्स सन्निवेसस्स बहिया पणियभूमीए मए सद्धि अभिसमन्नागए। [42 | उस समय बहुत-से लोगों से इस (पूर्वोक्त) बात को सुन कर एवं अवधारण करके उस मखलिपुत्र गोशालक के हृदय में इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प समुत्पन्न हुआ किमेरे धर्माचार्य एवं धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर को जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, बोर्य तथा पुरुषकार-परा कम ग्रादि उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हुए हैं, वैसी ऋद्धि, शुति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम आदि अन्य किसी भी तथारूप श्रमण या माहन को उपलब्ध, प्राप्न, और अभिसमन्वागत नहीं हैं। इसलिए निःसंदेह मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अवश्य यहीं होंगे, ऐसा विचार करके वह कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर और भीतर सब ओर मेरी शोध-खोज करने लगा। सर्वत्र मेरी खोज करते हुए कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर के भाग को मनोज्ञ भूमि में मेरे साथ उसकी भेंट हुई / 43. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हटतुटु० ममं तिक्खुत्तो आयाहिणषयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वदासी–'तुम्भे गं भंते ! मम धम्मायरिया, अहं णं तुभं अंतेवासी। 643] उस समय मंलिपुत्र गोशालक ने प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर तीन बार दाहिनी पोर से मेरी प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं अापका अन्तेवासी (शिष्य) हूँ। 44. तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयम पडिसुणेमि / [44] तब हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की इस बात को स्वीकार किया। 45. तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धि पणियभूमीए छब्बासाई लाभं अलाभ सुखं दुक्खं सक्कारमसक्कारं पच्चणुभवमाणे अणिच्चजागरियं विहरित्था। | 45] तत्पश्चात हे गौतम ! मैं मंखलिपुत्र गोशालक के साथ उस प्रणीत भूमि में (प्रदेश में) छह वर्ष तक लाभ-अलाभ, मुख-दुःख, सत्कार-असत्कार का अनुभव करता हुमा अनित्यता-जागरिका (अनित्यता का अनुप्रेक्षण) करता हुया विहार करता रहा / विवेचन–प्रस्तुत सोलह सूत्रों (सू० 30 से 45 तक) में भगवान ने अपने द्वितीय, तृतीय, और चतुर्थ मासखमण के पारणे का पूर्ववत् वर्णन किया है। इधर चतुर्थ मासखमण का पारणा बहुल ब्राह्मण के यहाँ हुया, उधर गोशालक भ. महावीर को तन्तुवायशाला में न देखकर ढंढता हूंढता थक गया तब पुनः तन्तुबायशाला में आया / उसने अपने समस्त उपकरण ब्राह्मणों को दान में दे दिये और दाढी, सिर आदि के सब केश मुडवा कर भगवान् की खोज में निकला / कोल्लाक-सन्निवेश के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy